Book Title: Anubhuti evam Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 11
________________ पूर्व में न आए ऐसे अपूर्व भाव राग द्वेष की ग्रंथि भी जब भिद जाए स्थिति घात, रस घात और गुण श्रेणी कर कर्मों को अपने अनुकूल बनाता यह सारा कार्य करना होता मात्र अन्तर्मुहूर्त काल में जीव तब करता अपूर्व स्थिति बंध अनिवृत्ति काल में संख्यातवॉ भाग हो जब बाकी उदीरणा अपवर्तना से मिथ्यात्व दलिको को कर क्षय-उपशम अन्तर्मुहूर्त काल तक जब उनका उदय निःशेष हो तब अन्तःकरण में होता जीव का प्रवेश है उपशम सम्यक्त्व की अनुभूति से जीव लांघकर दो सीढ़ी चतुर्थ गुणस्थान में आता है अनंता अनुबंधी के उदय से च्युत होता जब औपशमिक सम्यक्त्व से आस्वादन रहा जैसे वमन हुई खीर का कहलाता यही सास्वादन गुणस्थान है काल इसका मात्र छ: आवलिका है। मिश्र पुंज के उदय से जीव पाता मिश्र गुणस्थान है जिन धर्म का न रागी न द्वेषी न करता आयु बंध नहीं मृत्यु पाता है इसमें अन्तर्मुहूर्त काल वाला यह तीसरा गुणस्थान है। अनुभूति एवं दर्शन / 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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