Book Title: Anubhuti evam Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 19
________________ ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य तो है सदा निज मे रमण किंतु मन सदा करता रहता है इन्द्रियों के विषयों में विचरण; यह है इसके अनादि के संस्कार बलिष्ट और प्रगाढ़ा, निमित्त मिलते ही इन्द्रियां भी अपने विषयों में हो जाती हैं तत्पर संयम के सर्व प्रयत्न तब होते हैं निष्फल इन्द्रिय दमन भी नहीं है, इसका कोई हल दमन में भी आग्रहवश निरोध है, विषय रस तो यहाँ भी अवशेष हैं स्व हिंसा का ही वहाँ है भाव सतत सजगता और वैराग्य से ही संभव होता है कुसंस्कारों का परिमार्जन ब्रह्मचर्य नहीं है त्याग का प्रदर्शन नहीं है वह मात्र बाहरी आरोपण ब्रह्मचर्य है बोधपूर्वक आचरण नहीं किसी का अनुकरण, अनुसरण आत्म बोध से प्रज्ञा चक्षु जब खुल जाते हैं तब रूप, रस, गंध, स्पर्श सब पुदगल का खेल नजर आते हैं विषयासक्ति के हास से ही ब्रह्मचर्य विकास पाता है अनुभूति एवं दर्शन / 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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