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来来来来************************************************************ अंतकृतदशा कहलाता है, क्योंकि इस सूत्र के साधकों का केवली पर्याय में विचरने का वर्णन नहीं मिलता है। - स्थानकवासी परम्परा में इस शास्त्र का विशेष महत्त्व है। प्रायः सभी स्थानकवासी परम्परा में इस आठवें अंग शास्त्र का पर्युषण के आठ दिनों में वाचन किया जाता है। इसे पर्युषण पर्व में वाचने के लिए पीछे हेतु दिये जाते हैं, यह आठवां अंग है, इसके आठ वर्ग है, पर्युषण के दिन भी आठ है, आत्मा के लगे कर्म भी आठ है जिनको क्षय करने का साधकों का लक्ष्य होता है आदि अनेक कारणों से इस शास्त्र को महत्त्वपूर्ण समझ कर पूर्ववर्ती आचार्यों ने इस शास्त्र को पर्युषण पर्व के दिनों में वाचने की परम्परा चालू की जो अविच्छिन्न रूप से वर्तमान में भी चल रही है। ___ इस सूत्र में अनेक साधक-साधिकाओं की साधना का सजीव चित्रण किया गया है एक
ओर गजसुकुमार जैसे तरुण तपस्वी का तो दूसरी ओर अतिमुक्तक जैसे अल्प व्ययस्क तेजस्वी श्रमण नक्षत्र का, तीसरी ओर वासुदेव कृष्ण एवं श्रेणिक महाराजा की महारानियों का उज्ज्वल तपोमय जीवन का। इस प्रकार राजा, राजकुमार, महारानियों, श्रेष्ठी पुत्रों, मालाकार, बालक, युवक, प्रौढ़ आदि के संयम ग्रहण करने एवं श्रुत अध्ययन, तप, संयम, ध्यान, आत्मदमन, क्षमा भाव आदि का वर्णन इस सूत्र में मिलता है।
इस सूत्र में जिन नब्बे महापुरुषों का आठ वर्गों में जो जो वर्णन हैं, उनका संक्षिप्त सार इस प्रकार है - - प्रथम वर्ग - इस वर्ग के दस अध्ययन हैं। इसके शुभारम्भ में द्वारिका नगरी के निर्माण, इसकी ऋद्धि सम्पदा आदि का अति सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है। इस नगरी के अधिपति त्रिखण्डाधिपति कृष्ण-वासुदेव एवं इनके पिताश्री वसुदेव आदि दस (दशाह) भाईयों का वर्णन किया गया है। वासुदेव अर्द्ध चक्री होता है, उनकी ऋद्धि का वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि बलदेव प्रमुख आदि पांच महावीर, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ कुमार, शत्रुओं से पराजित न हो सकने वाले शाम्ब आदि साठ हजार शूरवीर, महासेन आदि ५६ हजार सेनापति दल, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजा, रुक्मणी आदि सोलह हजार रानियाँ, चौसठ कलाओं में निपुण ऐसी अनंगसेना आदि अनेक गणिकाएं और भी अनेक ऐश्वर्यशाली नागरिक, नगर रक्षक आदि निवास करते थे। परम प्रतापी कृष्ण वासुदेव का एक छत्र राज्य द्वारिका नगरी से लेकर क्षेत्र की मर्यादा करने वाले वैताढ्यपर्वत पर्यन्त था।
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