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प्रस्तावना
जैन आगम साहित्य का प्राचीन भारतीय साहित्य में अपना एक विशिष्ट और गौरवपूर्ण स्थान है। इसका कारण इसकी मौलिकता के साथ-साथ इसके उपदेष्टा सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग प्रभु की सर्वज्ञता है जिसके कारण इसमें दोष की किंचित् मात्र भी संभवना नहीं रहती और न ही इसमें पूर्वापर विरोध या युक्ति बाधक होती हैं। क्योंकि तीर्थंकर प्रभु छद्मस्थ अवस्था में प्रायः मौन ही रहते हैं। जब वे अपने सम्यक् पुरुषार्थ (तप-संयम) के द्वारा चार घाती कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान-केवलदर्शन (पूर्णता) प्राप्त कर लेते हैं, तब वे महापुरुष धर्मोपदेश फरमाते हैं। अपने प्रथम धर्मोपदेश में ही चतुर्विध संघ की स्थापना एवं जितने भी गणधर उनके शासन में होने होते हैं, वे हो जाते हैं।
तीर्थंकर भगक्न्त धर्मोपदेश अर्थ रूप में करते हैं, जिसे महाप्रज्ञा के धनी गणधर भगवन्त सूत्र रूप में गूंथित कर व्यवस्थित आगम का रूप देते हैं। इसलिए कहा गया है 'अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा' आगम साहित्य की प्रामाणिकता केवल इसलिए नहीं है कि ये गणधर द्वारा कृत है प्रत्युत इसके अर्थ के मूल उपदेशक तीर्थंकर प्रभु की वीतरागता है। गणधर भगवन्त मात्र द्वादशांगी की रचना करते हैं, जो अंग साहित्य के रूप प्रसिद्ध है। इसके अलावा जितने भी आगम साहित्य की रचना है, वह सब स्थविर भगवन्तों द्वारा की हुई है, जो अंगबाह्य आगम के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ स्थविर भगवन्तों से आशय दस पूर्वो से. चौदह पूर्वो के ज्ञाता श्रुत केवली से है? ये स्थविर भगवन्त सूत्र और अर्थ दोनों दृष्टि से अंग साहित्य में पारंगत होते हैं। अतएव वे जो कुछ भी रचना करते हैं उसमें किंचित् मात्र भी विरोध नहीं होता है। जो बात तीर्थंकर भगवन्त कह सकते हैं, उसको श्रुतकेवली भी उसी रूप में कह सकते हैं। दोनों में मात्र अन्तर इतना है कि केवलज्ञानी सम्पूर्ण तत्त्व को प्रत्यक्ष रूप से जानते हैं, जबकि श्रुत केवली परोक्ष रूप से जानते हैं। साथ ही उनके वचन इसलिए भी प्रामाणिक होते हैं क्योंकि वे नियमतः सम्यग्दृष्टि होते हैं।
. वर्तमान में स्थानकवासी परम्परा बत्तीस आगमों को मान्य करती है। जो अहंत् कथित, गणधर, प्रत्येक बुद्ध अथवा पूर्वधर स्थविर भगवन्तों द्वारा रचित हैं। इनमें से अंग साहित्य
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