Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 22
________________ २०, बर्ष ३०, कि०१ अनेकान्त उनके निकटवर्ती होने की चेष्टा करेगा और उनके प्रति है, इसमे निज स्वभाव का तिरस्कार है। अगर हम एक विनय को प्राप्त होगा। अगर ऐसा नही होता तो सम. बड़े प्रादमी के खड़े रहते एक मामूली प्रादमी का प्रादर झना चाहिए कि अभी उसके निज तत्त्व को पभिरुचि भी करते है तो उस बडे प्रादमी का तिरस्कार हो जाता है, मही हुई है, वास्तविकता नही पाई है। सच्ची रुचि होने अगर भगवान चैतन्य स्वभाव के रहते 'पर' का, धन का, पर जब तक निजतत्व को प्राप्त न कर ले तब तक जिन वैभव का, शरीर का, कर्म का, पुण्य का, मादर मा रहा उपायों से निज तत्त्व की पुष्टि होती है उन सभी के प्रति है, उसकी महिमा पा रही है तो समझना चाहिए कि तूने उसका सदभाव रहेगा । जैसे अपने पुत्र से दूर रहने वाली भगवान चैतन्य का अपमान किया है, और 'पर' मे रस स्त्री अपने पुत्र की फोटो के प्रति भी पुत्रवत् प्रेम का पा रहा है तो समझना चाहिए भगवान चैतन्य का रस व्यवहार करती है। उसी प्रकार निज तत्त्व की खोज तेरा विरस हो गया है। अगर तेरी चेतना बाहर बह करने वाला, जिन लोगों ने निज तत्त्व को प्राप्त किया रही है तो भीतर मे तू खाली है, दरिद्री है। जो भीतर उनकी स्थापना के प्रति भी विनय को प्राप्त होगा। यदि का दरिद्री होता है, खाली होता है, वही उस खालीपन उसको निज तत्त्व के प्रति वाकई मे रुचि हुई है तो यह को बाहर से, 'पर' से, भरने की चेष्टा करता है। 'पर' उसकी पहचान है। धन की रुचि वाला घनिक के नज- से वास्तव मे भरा नही जा सकता परन्तु अपने को भ्रम दोकवर्ती होगा, गरीब के नही। वैसे ही निज स्वरूप को मे डाल लेता है। अगर दृष्टि बाहर 'पर' पर जा रही है, प्राप्त करने वालों के ही वह नजदीकवर्ती होगा, जो निज तो तेरी दृष्टि व्यभिचारिणी है, पर-पुरुष पर दृष्टि रखने स्वरूप से बाधक है उनके नही। निज स्वरूप की प्राप्ति वाली स्त्री की तरह, परधन पर दृष्टि रखने वाले में जो रुकावट होगे उनसे परहेज करेगा, यह स्वाभाविक चोर की तरह । तेरी दृष्टि अगर बाहर मे है तो भीतर है, और ऐसे निज स्वरूप की रुचि का होना ही वास्त- से तू अन्धा है। तो भाई अगर अन्तर दृष्टि की प्यास विक शुभ भाव है। लगी तो तू कहां जा सकता है ? अगर बाहर गया भी तो ___ इसी प्रकार, जब वह निज स्वरूप मे नही ठहर सकेगा वही तक जाएगा जहां से निज वस्तु मे फिर पुरुषार्थ तो बाहर पायेगा। तब 'पर' मे तो पाया परन्तु वहा जागृत हो सके । 'पर-पर' में भेद करेगा । एक 'पर' वह है जहाँ से आगे इसलिए अगर भीतर से बाहर आया है तब भी, और छलाग निज स्वरूप में लगाई जा सकती है, जैसा ऊपर बाहर से भीतर जाना है तब भी, तेरा ठहराव प्रगर बता चुके है, निज स्वरूप को प्राप्त करने वालों के वास्तविक निज स्वरूप मे है तो निज स्वरूप को साक्षात निकटवर्ती होकर । एक जगह वह है जहा निज स्वरूप का प्राप्त करने वाला भगवान सर्वज्ञ, निज स्वरूप का कथन निवेष वतंता है, जहा से निज स्वरूप में छलाग नही करने वाला उनको वाणी, पोर निज स्वरूप को साधना सगाई जा सकती। वहा स्थिरता न करके इस पहले वाली में लगे साधु को छोड़कर कहा जाएगा? उनको ही भूमि पर हो ठहरना है। परन्तु इसको भी निज धर तो महिमा पाएगी, उनके प्रति ही विनय को प्राप्त होगा। महो मानना है। इसी को शुभ भाव कहते है, यही वास्तविक पुण्य है, हमारे जीवन परिवर्तन में पहला सवाल है कि चतना क्योकि योगसार मे लिखा है कि जो प्रात्मा को स्वाधीन बाहर की तरफ बह रही है कि अन्तर की तरफ, दष्टि बनावे उसे पुण्य कहते है और प्रात्मा को पराधीन बनाय बाहर 'पर' के ऊपर है कि अन्तर में 'स्व' के ऊपर- उसे पाप कहते है। उपयुक्त स्थिति हो प्रात्मा की स्वा. महिमा 'पर' को पा रही है कि 'स्व' की-रस 'पर' में प्रा धीन बनाने वाली है। जो धन, वैभव, भोग-सामग्री कर्म रहा है कि 'स्व' मे---सभी बातों का एक ही उत्तर है और से मिलती है वह तो प्रात्मा के लिए पराधीनता का सभी एक ही गवाल है। अगर धन की, शरीर की, महिमा कारण है, वह प्रात्मा के लिए हितकारी कैसे हो सकती है। प्रा रही है ता इम 'पर' की महिमा में 'स्व' का तिरस्कार Ova

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