Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 152
________________ ७० ३०,कि. ३.४ प्रशमरतिप्रकरण की भाष्य के साथ भी काफी समा. पदेशइत्यनर्थान्तरम् ।' नता है। प्रशमरति में उपयोग को द्विविध साकार एवं तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्दों में मनाकार बताया है।' तत्त्वार्थ भाष्य में भी ज्ञानोपयोग अभिनिबोध को उल्लिखित किया है। प्रशमरति में भी को साकार तथा दर्शनोपयोग को मनाकार शब्दों से मतिज्ञान को मभिनिबोधक कहा है।" उल्लिखित किया है। प्रशमरति में कहा गया है : संसारानुप्रेक्षा का प्रशमरतिप्रकरण का वर्णन भाष्यासम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में से एक के भी प्रभाव में मुसारी हैमोक्षमार्ग प्रसिद्धिकर है। माता भूत्वा दुहिता भगिनी भार्या च भवति संसारे । तास्वेकतराभावेऽपि मोक्षमार्गोऽप्यमिद्धिकरः ।' व्रजति सुत: पितृतां भ्रातृतां पुनः शत्रुतां चैव ।" इन्हीं शनों का भाष्य में प्रयोग है : भाष्य- माता हि भूत्वा भगिनी दुहिता माता च भवति । एकसराभावेऽप्यसाधनानि ।' भगिनी भूत्वा माता भार्या दुहिता च भवति...... सम्यग्दर्शन पौर सम्यग्ज्ञान के होने पर भी चारित्र इस प्रकार प्रशमरतिप्रकरण का तत्त्वार्थसूत्र व कभी होता है कभी नहीं, किन्तु चारित्र के होने पर सम्यग- तत्त्वार्थभाष्य से शाब्दिक साम्य है, जो मापाततः दोनों के दर्शन और ज्ञान का लाभ सिद्ध ही है। इस बात को कर्ता के ऐक्य की संभावना को जन्म देता है। प्रशमरतिप्रकरण तथा भाष्य मे लगभग एक से शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है। वैषम्य प्रशमरतिप्रकरण तथा सभाष्य तत्त्वार्थ में महत्त्वपूर्ण प्रशमरति सैद्धान्तिक अन्तर है। पूर्वयसम्पद्यपि तेषां भजनीयमुत्तर भवति । पूर्वद्वयलाभः पुनरुत्तरलाभे भवति सिद्धः । १. द्रव्य संख्या-तत्त्वार्थसूत्रकार मुख्य ५ द्रव्य मानते हैं। काल द्रव्य के स्वतन्त्र अस्तित्व के विषय मे तत्त्वार्थभाष्य बे उदासीन है। श्वेतम्बर पाठ 'कालश्चेल्येके तो एषां च पूर्वलामे भजनीयमुत्तरम् । निश्चित कप से काल के स्वतन्त्र द्रव्यत्व के विषय मे उत्तरलाभे तु नियतः पूर्व लाभ: ।। सूत्रकार की तटस्थता को द्योतित कर रहा है। दिगम्बर प्रशमरति मे शिक्षा, पागम, उपदेशश्रवण अधिगम के पाठ 'कालश्च' के द्वारा भी सूत्रकार की मान्यता का तथा स्वभाव और परिणाम निसर्ग के पर्यायवाची शब्द विश्लेषण करें, तो यह कह सकते हैं कि सूत्रकार इस विषय दिये गये है। में तटस्थ थे। शिक्षागमोपदेशश्रवणान्येकार्थकाव्यधिगमस्य । मजीव द्रव्यों के वर्णन से पांचवे अध्याय का प्रारम्भ एकार्थः परिणामो भवति निसर्गः स्वभावश्च ॥ होता है यहां प्रथम सूत्र में धर्म, अधर्म, प्राकाश और भाष्य में भी ये ही पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं पुद्गल इन चारों को प्रजीवकाय कहा गया है। यहां काल मागम: अभिगमः प्रागमो निमित्तं श्रवणं शिक्षा उप- के कायस्व का प्रभाव होने से उसका परिग्रहण नहीं किया देशइत्यनर्थान्तरम् ।..निसर्ग: परिणामः स्वभाव. अपरो- गया। व्याणि" जीवाश्च" इन दो सूत्रों के उपरान्त १. प्रशमरति, १६४। २. तत्त्वार्थसूत्र १/8 का भाष्य । ३. प्रशमरति २३०। ४. तत्त्वार्थसूत्र १/१ का भाष्य । ५. प्रशमरति, २३१ । ६. तस्वार्थसूत्र १/१ का भाष्य । ७. प्रशमरति २२३। ८. तत्त्वार्थसूत्र १/३ का भाष्य । ६. तत्त्वार्थसूत्र १/१३ । १०. प्रशमति २२५। ११. प्रशमरति १५६ । १२. तत्त्वार्थसूत्र २/७ का भाष्य । १३. तत्वार्थसूत्र५/३८ । १४. वही ५/२। १५. वही ५/३

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