Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 176
________________ ९४, वर्ष ३०, कि० ३-४ 'स्फटिक श्वेत रक्तं च पीत श्यामनिमं तथा। इसमें पर भी यदि कही कुछ प्रतिमाएं प्राचार्य, एततपंचपरमेष्ठि पंचवर्ण यथा क्रमम् ॥' उपाध्याय या साधुषों की मिलती हों तो उन्हें नबीन के उक्त मान्यता श्वेताम्वर रीति में है। दिगम्बर संदर्भ में ही लिया जायगा । ऐसी अवस्था में ध्वज में मान्यतानुसार तो सिद्ध अशरीरी हैं प्रतः यदि उनकी इन तीन परमेष्ठियों की प्रतिमानों के रंगों की कल्पना, प्रतिमानों की कल्पना भी की जाएगी-(जैसा कि प्रचलन कोरी कल्पना मात्र ही कोरी कल्पना मात्र ही है-तथ्य नहीं। भी है) तो वह भी निराकार-अशरीरी रूप में ही की जाएगी और कोई भी रंग न होगा। ऐसे में उनका रग कुछ ऐसे प्रमाण भी है जिनसे गुरुपों की मूर्ति केन लाल मान लेना सिद्धान्त का व्याघात करना होगा। हा के होने की बात और इनकी (छतरी) तथा चरण-स्थापना इसके सिवाय-प्राचार्य, उपाध्याय और साथ की प्रतिमानों आर पूजा की परम्परा सिद्ध होती है तथा के रंगों को क्रमशः पीताम, हरिताभ और नीलाभ मानना 'प्राचार्यादि गुणान् शस्य सतां वीक्ष्य यथायुगम् । भी दिगम्बर माम्नाय के विरुद्ध है जब कि सिद्धान्ततः गुर्वादः पादुके भक्त्या तन्यास विधिना न्यसेत् ॥'और पागमों व प्राचीनतमत्व की अपेक्षा इनकी -प्रति सारोद्धार ६३६ मूतियों का विधान ही सिद्ध नहीं होता। दिगम्बर परम्परा में पूर्ण वीतरागता की पूजा के उद्देश्य से महन्तों की घटयित्वा जिनगृहें तत्प्रतिष्ठा महोत्सवे । प्रतिमामों का विधान है और वीरागता के कारण सिद्धों निधिको प्रतिष्ठाय रक्षकांगो जनावनी ।।६।३७ का भी समावेश किया गया है। जहाँ तिल तुष मात्र 'वात्वा यथास्वं गुर्वादीन्यस्येत्तत्पादुका युगे। भी अन्तरंग बहिरंग परिग्रह है वहां जिन-रूप की कल्पना निषेषिकायां सन्यास समाधिमरणादि च ॥ नहीं है। प्राचार्य, उपाध्याय और साधु तीनों ही श्रेणियां -वही १०८१ साधक की श्रेणियां है-पूर्ण वीतरागत्व की श्रेणियां नहीं। यही कारण है कि लोक मे जितने अकृत्रिम तेषां पदान्जानि जगडितानां वचो मनोमूर्धसु धारयामः ।। चैत्यालय है उनमें इनके विम्बों के होने का उल्लेख नहीं (प्रति० सा० सं०) है। शास्त्रों और लोक में भी जिन-मदिरों का चलन 'तुम्हं पायपयोतहमिह मंगलस्थि मे णिच्चं ।'-माचार्यभक्ति पाचार्य. उपाध्याय या साधु के मन्दिरी का विधान तेषां समेषां पदपंकजानि ....... ॥ प्रति. तिलक।। मी गौतम, सघर्मा जैसे गणधरों और जम्बू स्वामी ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र पवित्रतरगावचतुर भी चरण ही पूजे जाते रहे हैं। यद्याप कवला शोतिलक्ष गणगणधरचरण मागच्छत २...............। होने के बाद इनकी प्रतिमाएं बनाने में कोई प्रापत्ति नहीं। प्रतिष्ठा तिलक ॥ पूर्ण वीतरागी होने से सिद्ध परमेष्ठी को मन्दिरों में स्थान दिया गया है-उनको निराकार स्थापना की जाती इसके अतिरिक्त प्रतिष्ठासारोद्धार के निम्न पाठ भी है। मागमों में पसंख्यात प्रक्रत्रिम चैत्यालयों का वर्णन मायालयों का वर्णन चरण पूजा में स्पष्ट प्रमाण हैं। इसका निष्कर्ष ये हैं कि है वहाँ भी परहन्तों की मूर्तियों का ही विधान है-प्राचार्य प्राचीनतम युग में मुनि की मूर्तियां नहीं होती थीं अपितु उपाध्याय और साधूमों की मूर्तियों का नहीं। त्रिलोकसार उनके चरणों की ही स्थापना का विधान था। तथाहिमें भी मात्र परहंतों व सिद्धों की प्रतिमानों के होने का (गुरुपूजा से-) उल्लेख हैं-प्राचार्य उपाध्याय और साधु की प्रतिमानों 'तेषामिह गुणभृतां भानुचरणाः॥का नहीं। तथाहि 'कम भुवि गुरुणा प्रणिदधे ॥''बिन सिद्धाणं पटिमा प्रकिट्टिया किट्टिमा दु पदिसोहा। 'भवांभोधेसेतूनृषिवृषभपावान् ॥'रयणमया हेममया रुप्यमया ताणि वंदामि ॥१०१॥' 'माचार्यचरणानुपस्कुर्मो ॥,

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