Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 186
________________ १००, ३०, कि० ३.४ जिनकी पीठे एक दूसरे की पोर हैं। बीच में धर्मचक्र दिखाई देती है। सम्भवतः ये परिचारक भरत एवं बाहबलि उत्कीर्ण है जिसकी नाभि से फंदना निकल रहा है। धर्म- है"। जिनके दोनों पोर कमों के ऊपर उड़न-मद्रा में माल्य-हस्तविद्याधर-युग्म प्रदर्शित है तथा उसके ऊपर दोनों चक्र के जार मिहासन-पीठ पर बिछे प्रास्तरण का __ोर गजारूढ़ शव एवं भेरी (२) वादक दर्शाए गए है। लटकता हपा भाग दिखाया गया है जिम पर लहरदार छावनी के दोनो योर पनः ।। २ माल्य धारी गन्धर्व अभिकलाना के साथ-माथ तरगित माल्पों महिन कीति- प्रदर्शित है। छत्र के ऊपर की प्राकृति कुछ अस्पष्ट है। प्रतिमा में चरण-गीठिका के निचले भाग के मध्य में मुवों से निकलते हा प्रलम्बित लटकन है। चरण चौकी वामाभिमुख नन्दी का प्रकन है जिनके दोनों ओर के बाएं उपान्त पर मुखागन में वृषभ-मुखी यक्ष गोमुख । अभिलेख है जो इस प्रकार है --- का प्रवन है जिसके दक्षिण जानु पर स्थित हस्त में पंक्ति १ ७॥ संवत् १०८४ फाल्गुन मुदि १३ रवोसयंथ बिजोग फल बहुत ही स्पष्ट है। पीटिका के दाएं अग्रान्त वाहडकेन पर न-रूप गरुड़ पर सुखासन में पासीन चतुरहस्ता २. करा पितः ।। सूत्रधार गो हर वलाइच सुतेन ॥११ चक्रेश्वरी यक्षिणी है जिसके पिछने हाथों में चक है पौर ३. सबद १६६० वैशाख सुदि ५. 'वई कुहाड़ वस(:) वामहस्त मे बीजपूर है। ४. तराय रे बेटे विटो च [-] द प्र [ति] ष्ठा कराई नौहर मध्ये २ यक्ष-यक्षिणी प्रतिमानों के ऊपर प्रप्रान्त रथिकानों विषय तथा लिपि की दृष्टि से ये दो पक्तियों के दो पर दोनों पोर क्रमशः पूर्ण घट लिए उहीयमान मुद्रा मे अलग-अलग अभिलेख है। मूति की स्थापना संवत् १०८४ किन्नरियां, उनके ऊपर छत्रावली एव केवल-वृक्षों के फाल्गुण सुदि १३ रविवार को सूत्रधार गोहर वलाइच नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा में खड जिन, उनपर नृत्य तथा (?) के पुत्र वाहड के द्वारा कराई गई थी। ऐसा प्रतीत उडन मद्रा में पूनः किम्नरिया तथा सर्वोपरि पद्मासनस्थ लघु होता है कि किसी कारण से जिस मन्दिर में यह मति थी जिन प्रतिमाएँ है। मख्य प्रतिमा के बाहपो के साथ दोनो नष्ट हो गया या मति पजित नहीं हो पाती थी। पोर एक-एक परिचारक (चामरघर ?) दिखाया गया है। अतः कालान्तर में मवत् १६६० वैशाख सदि ५ को ये परिचारक कर्ण कुण्डल, हार, भुजबन्ध, ककण, नूपुर कुहाड (?) बसन्त राय के बेटे वृद्धिचन्द्र ने नौहर के प्रादि प्राभषणो से विभूषित है तथा क्रमशः दक्षिण वर्तमान जैन देवालय में या अन्यत्र इसे पुनः प्रतिष्ठित तथा वाम हस्त को तत्तत् जघा पर टिकाए सुन्दर करवाया। द्विभग मुद्रा में खडे जिन को निहार रहे है। दोनो के जो भी हो, लाञ्छन, प्रतिहार्यादि से युक्त यह अधोवस्त्रों की मध्यवर्ती लटकन जानु-पयन्त बीचोंबीच प्रतिमा" ग्यारवी शताब्दी में नोहर क्षेत्र में जैन धर्म की प्रवलम्बित है। दोनों ने वंजयन्ती माला पहन रखी है लोकप्रियता की प्रतीक है तथा जैन प्रतिमा-विज्ञान की जो पीछे से उनके वाहनों पर पाकर फिर भुजामों के दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। नाछ से नीचे पाती हुई घुटनों के कुछ नाचे स्पष्ट बी०टी०टी०कालेज, सरदार शहर (राज.) ८. तूलना कर ११. सिद्धि तथा मंगल सूचक यह चिन्ह प्रायः मभिलेखो (1) ऋषभे गोमुखो यक्षो हेमवर्णो गजाननः । के प्रारम्भ मे मिलता है। इसे 'भले' की संज्ञा वराक्षसूत्रापाशञ्च बीजपूर करेषु च ।। दी जाती है। सूत्रधार मण्डनकृत-वास्तु-शास्त्र १२. इस अभिलेख के प्रारम्भ मे 'भले' तथा मन्त मे (ii) चतुर्भुज: सुवर्णाभो गोमुखे वृषवाहनः । विरामादि चिन्हो का प्रभाव है। इसमें त के स्थान हस्तन, परशू धत्त बीजपूराक्षमूत्रकम् । पर द (सवद), अनुस्वार के प्रयोग का प्रभाव, वरदान पर: सम्यक् धर्मचक्रञ्च मस्तके । ब के स्थान पर व (वेट) प्रादि बाते ध्यानीय है। वसुनन्दि कृत प्रतिष्ठा सारोद्धार । १३. वर्तमान देवालय भवन बहुत पुराना नहीं है। इस ६. देखें -वाम चक्रेश्वरीदेवीस्थाप्याद्वादशपड्भुजा । देवालय मे यह जिन प्रतिमा अभी तक अलग्न पड़ी धत्ते हस्तद्वये व चक्राणि च तथाष्टसु ।। है। देवालय की ड्योढ़ी में दूसरे स्थान से लाकर एकेन बीजपूर तु वरदा कमलासना । कुछ मूर्तियाँ दीवार मे जड़ दी गई हैं। प्रतः सम्भव चतुर्भुजाऽथवा चक्र द्वयोर्गरुडवाहना ।। है कि यह प्रतिमा भी किसी दूसरे मन्दिर या -प्रतिष्ठासार संग्रह। स्थान से लाकर यहां रखी गई हो। १०. पाश्र्वयोर्भरतबाह बलिम्यामपसेवितः । १४. इस प्रतिमा से ग्यारवीं शती में इस क्षेत्र में लाञ्छन, राथीभ्यः (?) मिव पाथोधिर्बभासे वृषभध्वजः ॥ प्रातिहादियुक्त प्रतिमानों के प्रचलन का पता त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, प्रादिश्वर, I-3, 58-v. चलता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 184 185 186 187 188 189