Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 90
________________ अनेकान्त या मागम-विरुद्ध मान्यताएं होती थीं उनकी वे प्रबल युक्ति- नब्बे वर्ष की प्रायु प्राप्त कर अस्थिर शरीर से मुक्त हैए, पूर्ण प्रकाट्य तर्को से धज्जियां बिखेर दिया करते थे। पर अपना यशःशरीर स्थिर भोर चिरस्थायी बना गए। उनके प्रमाण एवं तर्क इतने प्रबल और प्रकाट्य होते थे वे उच्चकोटि के विचारक, चिन्तक एवं लेखक थे। उनका कि मच्छे-मच्छ विद्वानों के दांत खट्ट हो जाते थे। सारा समय चिन्तन, लेखन, मध्ययन एवं मनन में ही समाज का बडे से बड़ा विद्वान भी उनकी युक्तियो का व्यतीत होता था। उन्हें मिमी तरका: व्यतीत होता था। उन्हें किसी तरह का भी व्यसन नहीं खंडन करने से कतराता था। भट्टारकीय परपरा एवं था। यदि व्यसन था तो केवल ग्रंथों एवं पुस्तकों के मध्यउनकी विलासिता तथा प्रागम-विरुद्ध अनौचित्य का यन का। उनका एक शब्द "हैजी, हैजी" बड़ा ही मस्सार सा. ने जिस खुबी से भंडाफोड़ किया था, तकिया कलाम था जिसे वे बोलते समय हर वाक्य में उससे रूढ़िवादी जैन समाज में बड़ा तहलका मच गया प्रयोग किया करते थे और मुझे इस पर बड़ी हसी माती पा और अंधभक्तों ने मुख्तार सा० पर बड़ा कापड थी, पर वे इसका तनिक भी बुरा नहीं मानते थे । उछाला था, पर मुख्तार सा० स्थितप्रज्ञ की भांति अपने तकों पर सर्वथा अटल रहे। मुख्तार सा० का शरीर ८५ वर्ष की अवस्था तक भी पूर्णतया सक्षम एवं कार्यरत रहा । अन्तिम समय तक मुख्तार सा. जो कुछ लिखा करते थे वह बड़ा उनकी पाखें काम देती रही। कानों से प्रलवना कम सुनाई माप-तोल कर एवं सोच-समझकर लिखा करते थे। उनके देने लगा था, जिसके लिए वे यंत्र का प्रयोग करने लगे लिखे हए वाक्य में से एक शब्द का भी परिवर्तन करना थे। बादाम, मुनक्का और खसखस का सेवन उनका नित्य संभव नहीं होता था। मुख्तार सा. की लेखनी बडी नियम का काम था। जब सन् १९५७ में मैं दिल्लीमा गया प्रबल और तर्कपूर्ण होती थी। उस समय की यह और दरियागंज नं०७ मे रहा करता था तो प्रायः त्रिमूर्ति (बा. जुगलकिशोर जी मुख्तार, ५० नाथू प्रतिदिन उनसे भेंट किया करता था। वे प्रतिदिन राम जी प्रेमी तथा बा० सूरजभान जी वकील) जैन साहित्य गगन में जाज्वल्यमान नक्षत्र की भाति सदा-सदा दरियागंज नं० ४ मे स्थित वीर-सेवा-मंदिर के चार मंजिले भवन से उतर कर मनाथाश्रम के मंदिर में दर्शन के लिए मालोकित होती रहेगी और पानेवाली पीढ़ी का मार्गदर्शन उनका प्रकाशित साहित्य करता रहेगा। वे करने जाया करते थे और अपनी बहिन जयवंती के यहां लोगों के सदा-सदा के लिए बंदनीय रहेंगे। इन्होंने जैन भोजन कर इतनी ही सीढ़ियां चढ़कर ऊपर जाया करते साहित्य के क्षेत्र में जो अभूतपूर्व शोध-खोज एवं नये-नये । थे । बादाम, मुनक्के की चटनी का प्रयोग मैंने उन्हीं से अन्वेषण के तथ्यात्मक मायाम प्रस्तुत किए है वे किसी साखा था। से छिपे नहीं हैं । यद्यपि उपयुक्त त्रिमूर्ति प्राज पृथ्बी-तल पर नहीं है पर हर समझदार साहित्यानुरागी उनके प्रति मुख्तार सा० अपने प्राचार-बिचार से निश्चय ही मादर और श्रद्धा से नतमस्तक है। उच्च कोटि के संत थे और यदि यह कहं कि वे सवस्त्र मुनि तुल्य थे तो कोई प्रत्युक्ति न होगी। उन्होंने जैनधर्म, मुख्तार सा० का शिक्षण-दीक्षण यद्यपि पडिताऊ ढंग जैन सस्कृति एवं जैन समाज को जो कुछ दिया है पर हुमा था, पर उनकी शैली इतनी वैज्ञानिक एवं तथ्य उससे जैन समाज ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतीय परक थी कि स्व. डा. उपाध्ये, स्व. हीगलालजी प्रभृति साहित्य-जगत युग-युगों तक उऋण नहीं हो सकता। अनेकानेक विद्वान उनकी लेखनी का लोहा मानते थे, यह सब पर जैन समाज ने प्रतिदान में उन्हें कुछ भी नहीं दिया। उन्होंने स्वाध्याय से ही अजित किया था। मुख्तार सा० उनके अभिनंदन-पथ की कई बार योजना तैयार की गई बड़े संयमी एवं सादगी-पसद प्रकृति के व्यक्ति थे। इसी पर सदा ही ठप रही। अंतिम दिनों में उनकी परिचर्या का परिणाम था कि वे इस घनघोर कलिकाल मे भी के लिए एक सेवक की भी व्यवस्था यह कृतघ्न समाज न

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