Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 134
________________ ५२, वर्ष ३०, कि० ३-४ भनेकान्त देवालय के निर्माण के लिए देलवाड़ा की पहाड़ी पर जमीन है कि वाहन मकर का प्रदर्शन पार्श्व यक्ष के कूर्मवाहन खरीदी थी। से प्रभावित रहा हो। विमलवसही की देवकुलिका ४६ वस्तुपाल-तेजपाल का मन्दिर १२३१ ई० में निर्मित के मण्डप के वितान पर उत्कीर्ण षोडशमुजी देवी की हुआ है। इसमें तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा स्थापित है। सम्भावित पहचान महाविद्या रोट्या एवं यक्षी पद्मावती राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड ने इन दोनों से ही कर सकते हैं। सप्त सर्पफणों से मंडित एवं मन्दिरों की शैली पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ललितमुद्रा में विराजमान देवी के आसन के समक्ष तीन "इसके मण्डप और अन्तरालयों की पच्चीकारी अद्वितीय सर्पफणों से युक्त नाग (वाहन) आकृति को नमस्कार मुद्रा है। इस मन्दिर की शैली विशेष रूप से प्रशंसनीय है। में उत्कीर्ण किया गया हैं। नाग की कटि के नीचे का भाग गुम्बद ऐसे प्रतीत होते है जैसे अर्ध-कमल का फूल खिला सर्पाकार है। नाग की कुंडलियां देवी के दोनों पाश्वों में हो। इसकी नक्काशी को देखने वाला एकाएक अपनी उत्कीणित दो नागी आकृतियों की कुडलियों से गुम्फित आंख को नहीं हटा सकता।" फर्गसन ने इस मन्दिर की है। हाथ जोड़े एवं एक सर्प से मण्डित नागी आकृतियों शैली के सम्बन्ध में लिखा है-"ऐसा प्रतीत होता है कि की कटि के नीचे का भाग भी साकार है। देवी की हेनरी सप्तम के काल में जो गिरजाघर वेस्टमिन्स्टर में भुजाओ मे वरद, नागी के मस्तक पर स्थित त्रिशूल, बना, वह इन दोनों मन्दिरो की तुलना में बिलकुल घण्ट, षड्ग, पाश, त्रिशूल, चक्र (छल्ला), दो ऊपरी फीका है। भुजाओं में सर्प, खेटक, दण्ड, सनाल पाकलिका, वज्र, विमलशाह गुजरात के प्रतापी नरेश भीमदेव के मन्त्री सर्प, नागी के मस्तक पर स्थित एवं जलपान प्रदर्शित हैं। थे। उन्होंने विक्रम ११वीं सदी में विमलवसही का निर्माण दोनों पावों में दो कलशधारी सेवक एवं वाद्य करती किया। विमलशाह के मन्दिर मे जैन तीर्थकर आदिनाथ आकृतियां अंकित हैं । सप्त सर्पफणों का मण्डन जहां देवी की पीतल की मूर्ति है । कला की सुन्दरतम कृति बनाने के की पद्मावती से पहचान का समर्थन करता है, वही कुक्कटलिए मूर्ति की आँख में हीरा लगाया गया और हीरे व पन्ने सर्प के स्थान पर वाहन के रूप में नाग का चित्रण एवं जैसे कीमती चमकदार पाषाणों का हार बनवाया गया। भुजाओं में सर्प का प्रदर्शन महाबिद्या रोट्या से पहचान यह मूर्ति तीन फुट ऊंचे चबूतरे पर स्थित है । जेम्स टाड ने का आधार प्रस्तुत करता है। इस मंदिर के विषय मे लिखा है कि "भारतवर्ष के भबनों जयपूर के निकट चांदनगांव एक अतिशय क्षेत्र है। मैं यदि ताजमहल के बाद कोई भव्य भवन है तो वह है यहां महावीरजी के विशाल मंदिर में भगवान महावीर की विमलशाह का मन्दिर।" सुन्दर और भव्य मूर्ति है। जोधपुर के निकट गांधाणी विमलवसही के गढ़मण्डप के दक्षिणी द्वार पर तीर्थ में भगवान् ऋषभदेव की धातु-मूर्ति ६३७ ई० की चतुर्मुजी पद्मावती की मूर्ति (१२वीं सदी) उत्कीर्ण मिलती है । बूदी से २० वर्ष पूर्व कुछ प्रतिमाएं प्राप्त हुई थी। है। कुक्कुट-सपं पर आरूढ़ पद्मावती की भुजाओं में सनाल उनमें से तीन अहिच्छत्र मे ले जाकर स्थापित की गई हैं। पद्य, पाश, अंकुश एवं फल प्रदर्शित है। लूणवसही के तीनों का रंग हल्का कत्थई है एवं तीनों शिलापट्ट पर गढमण्डप के दक्षिणी प्रवेशद्वार की दहलीज पर चतुर्भुजा उत्कीर्ण हैं। बाई से दाई ओर को प्रथम शिला फलक ३॥ पद्मावती की एक लघु आकृति उत्कीर्ण है। मकरवाहना फीट है। मध्य में फणालंकृत पार्श्वनाथ तीर्थकर की यक्षी के हाथों में वरदाक्ष, सर्प, पाश एवं फल प्रदर्शित हैं। खड्गासन प्रतिमा है। इसके परिकर में नीचे एक यक्ष वाहन मकर का प्रदर्शन परंपरा के विरुद्ध है, पर सर्प एवं और दो यक्षियाँ हैं, जो चंवर धारण किये हुए हैं। उनके पाश का चित्रश पद्मावती की पहचान का समर्थक है। ऊपर कायोत्सर्ग मुद्रा मे ३० इंच आकार की एक तीर्थकर साथ ही दहलीज के दूसरे छोर पर पाश्र्व यक्ष का चित्रण प्रतिमा है तथा उसके ऊपर ७ इंच अवगाहना की एक भी इसके पद्मावती होने को प्रमाणित करता है । संभव पद्मासन प्रतिमा है। इसी प्रकार दाई ओर भी दो

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