Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 137
________________ बेमचमद्राचार्य की साहित्य-साधना त्मक जीवनवृत्त है। ये शलाकापुरुष इस प्रकार हैं-२४ कृत अयोगव्यवच्छेदिका और अन्ययोगव्यवच्छेदिका नामक तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ६ वासुदेव, ६ बलदेव और ६ द्वात्रिशिकाएँ उत्तम रचनाएं हैं। इनमें बत्तीस-बत्तीस प्रतिवासुदेव । इस विशाल ग्रन्थ की रचना हेमचन्द्राचार्य ने श्लोक होने के कारण इन्हें 'द्वात्रिशिका' नाम दिया गया अपने जीवन की उत्तगवस्था में की थी। इसमें जैन पुराण, है। अयोगव्यवच्छेदिका मे जैन सिद्धान्तों का सरल प्रतिइतिहास, सिद्धान्त एवं तत्वज्ञान के सग्रह के साथ सम- पादन है। अन्ययोगव्यवच्छेदिका में जनेतर सिद्धान्तों का कालीन सामाजिक, धार्मिक और दार्शनिक प्रणालियों का निराकरण है तथा इस पर मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी प्रतिबिम्ब भी दृष्टिगोचर होता है। इसका परिशिष्ट पर्व नामक टीका लिखी है जो जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण अर्थात् स्थविरावलिचरित जन इतिहास की दृष्टि से विशेष ग्रन्थ है। महत्त्वपूर्ण है। प्रहन्नीति-यह जैन नीतिशास्त्र की एक उत्तम कृति कोश -आचार्य हेमचन्द्र ने इन चार कोश बन्यो की है। इसमें राजा, मन्त्री, सेनापति तथा राज्य के विविध रचना की है-१. अभिधानचिन्तामणि, २. अनेकार्थ- अधिकारियों एवं प्रशाभको के कर्तव्यो और अधिकारी का मग्रह, ३. निधण्टर्शप, ४. देशीनामभाला । अभिधान- निर्दग है। इसे लघ-अहंन्नीति भी कहते है। चिन्तामणि में अमरकोज के समान एक अर्थ अर्थात् वस्तु इन महत्त्वपूर्ण कृतियों के अतिरिक्त वीतरागस्तोत्र, के लिए अनेक शब्दों का उल्दख है। इस पर स्वोपज्ञ महादेवस्तोत्र, द्विज नदनचटिका, अहन्नामसहस्त्रसमुच्चय टीका भी। अनेकार्थमग्रह में एक नाब्द के अनेक अर्थ आदि के रचयिता भी आचार्य हेमचन्द्र ही है। इनका दिये गये है। अभिधानचिन्तागणि एकार्थककाश है जब ज्ञान बहमुखी था, इनकी प्रतिभा विलक्षण थी। कि अनेकार्थमग्रह नानार्थककोश है । निघण्टुशेष मे सन्दर्भ-ग्रन्य वनस्पतियों के नामो का मग्रह है। यह कोश आयुर्वेदशास्त्र १ मिद्ध हेमचन्द्रव्याकरण-हेमचन्द्र, गेट आनन्दजी के लिए विशेष उपयोगी है। इसे अभिमानचिन्तामणि का कल्याणजी पेटी, अहमदाबाद, १९३४ पूरक कहा जा सकता है। देशीनाममाला मे ३५०० देशी २. प्राकृतब्याकरण-हेमचन्द्र, भाण्डारकर ओरियण्टल शब्दों का संकलन है। ये शब्द संस्कृत अथवा प्राकृत रिग इंस्टिट्यूट, पूना, १९५८ व्याकरण में सिद्ध नहीं होते। देशी शब्दों का सा अन्य ३ काव्यानुशामन-हेमचन्द, दो भाग, महावीर जैन कोश उपलब्ध नहीं है । इस पर रवोपज्ञ टीका भी है। विद्यालय, बम्बई, १९३८ प्रमाणमीमांसा-न्यायशास्त्र के इम ग्रन्थ में पहले ४. छन्दानुशासन-हेमचन्द्र, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, सूत्र है और फिर उन पर स्वोपज्ञ व्याख्या है। इस ग्रन्थ १९१२ की विशेषता यह है कि यह मूत्र और व्याख्या दोनों को ५. द्याश्रयकाव्य--हेमचन्द्र, दो भाग, गवर्नमेंट सेट्रल मिलाकर भी मध्यकाय है। यह न तो परीक्षामुख और प्रेस, बम्बई, १९१५-१६२१ प्रमाणनयतत्त्वालोक जितना संक्षिात ही है और न प्रेम ६. त्रिषष्टिशलाकापुरुषनरित-हेमचन्द्र, छ: भाग, जैन कमलमार्तण्ड और स्याद्वादरत्नाकर जितना विस्तृत ही। आत्मानन्द सभा, भावनगर, १६३६-१९६५ इसमें प्रमाणशास्त्र के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का मध्यम प्रति- ७. परिशिष्टपर्व-हेमचन्द्र, एशियाटिक सोसायटी, पादन है। दुर्भाग्य से यह ग्रन्थ पूर्ण उपलब्ध नहीं है। कलकत्ता, १८६१ ___ योगशास्त्र-इसमें जैन योग की प्रक्रिया का पद्यबद्ध ८. अभिधानचिन्तामणि-हेमचन्द्र, देवचन्द्र लालभाई प्रतिपादन है । यह श्रमण-धर्म एवं श्रावक-धर्म के सिद्धान्तों जैन पुस्तकोद्धार संस्था, सूरत, १९४६ की विवेचना करता हुआ ध्यानमार्ग के द्वारा मुक्तिप्राप्ति १. अनेकार्थसंग्रह-हेमचन्द्र, चोखम्बा सस्कृत सिरीज, का निरूपण करता है। इस पर स्वोपश टीका भी है। वनारस, १९२६ द्वानिशिकाएँ-स्तोत्र-साहित्य की दृष्टि से हेमचन्द्र (शेष पृष्ठ ७४ पद)

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