Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 140
________________ ५८, वर्ष ३०, कि० ३-४ अनेकान्त कुशललाभ द्वारा रचित 'भीमसेन हंसराज च उपई' को पुनर्जीवन देने के लिये अपने मस्तक को काटने की एक भावना विषयक प्रेमाख्यान है। इसमें भीमसेन के घटना' प्रादि मे ढ ढा जा सकता है । गौरव और मदनमजरी के प्रेम का सात्विक वर्णन करना 'ढोलामारवणी च उपई' की कथा देशज भाषामों की ही कवि का मुख्य लक्ष्य रहा है। रचना की पुष्पिका के प्राण रही है। बारहवीं शताब्दी के प्रासपास 'ढोला' शब्द प्राधार पर यह वि. स. १६४३ श्रावण शुक्ला सप्तमी के प्रियतम और पति अर्थ मे रूढ़ हो जाने से इस कहानी की कृति घोषित होती है।' का प्रादि कवि प्रज्ञात ही है। यहीं से इस कथा-परम्परा स्थूलिभद्र छत्तीसी' मालोच्य कवि की ३७ छंदो मे का प्रारम्भ माना जा सकता है। लिखित एक लघु प्रेमाणन है। इसमें कुशललाभ ने जैन साहित्य में प्रगड़दत्त की कथा प्रति प्राचीन है जैन ऋषि स्थ लिभद्र और वेथ्या कोशा के प्रेम एवं उनके जो 'वसुदेव हिंडो' के उपविभाग 'धमिलहिंडी के माध्यम संयमी जीवन की कहानी कही है। से प्रसारित हुई । यही परम्परा प्राकृत में विकसित हुई कुशललाभ की उक्त सभी प्रेमारूपानक रचनाए' पोर उसी परम्परा को प्रागे बढ़ाने वाली कड़ी है कुशलपरम्परा से सम्बद्ध है। इन काव्यो का प्राधार लोक- लाभ कृत 'प्रगड़दत्तरास। प्रचलित कथाए , विक्रम चक्र की कथाए', प्राकृत अपभ्रश जैनधर्म मे ब्रह्मचर्य के उपदेश-निमित्त कोशा को के मानकग्रंथ 'कथासरित्सागर' एव जैन प्रागम साहित्य चित्रशाला में उसके प्रेमी स्थलिभद्र के चातुर्मास बिनाने की अधिगृहीत कथाए है। उक्त प्रयम दो कृतियां जनेत्तर की कथा प्राचीन काल से ही कही जाती रही है। प्रागमों प्रेमाख्यान हैं, शेष जन लोक तत्वो और सदाचारों से मे इसका वर्णन है। 'वसुदेवहिंडो', 'समराइच्चकहा' मे सम्पन्न है। सासारिक विषयभोगो की क्षणभगूरता सिद्ध करने के लिये 'माधवानल कामकंदला च उपई' कथासरित्सागर मे मधुबिदु दृष्टात का उपयोग किया है। यही सूत्र कुशल. ईल्लक नाम के वणिक की स्त्री के विरह से मृत्यु, श्रीधर लाभ को पालोच्य कृत्ति में वर्णित है। प्रतः इन्ही प्रथों की बात में कुमुदिका का श्रीधर का प्रेम' तथा क्षेमकर से 'स्थूलिभद्र छत्तीसी' रचना का संबन्ध जोड़ना की मिहासन द्वात्रिशिकी' की २६वी वात मे वणित धनह चाहिये : श्रेष्ठ द्वारा बताये गये द्वीप के देवालय मे लिखित लेख 'जिनपालितजिनरक्षित संधिगाथा' का प्राधार वजित को पढ़ कर विक्रम द्वारा खड़ग ग्रहण कर स्त्री तथा पुरुष दिशा और दो भाइयो के कथानन्तुप्रों वाले 'मोटिफ' है। ९. . १. "इति श्री भावनाविषये राजा श्री भीम मेन हम संबध चउपई समान"--एल. डी. इस्टीटयूट प्राफ इण्डोलोजी, अहमदाबाद, ग्र० १२१७ । २. सवत लोक-वेद सिणगार, वर्षा ऋतु जलधर विस्तार । श्रावण मास शुक्ल सप्तमी, रच्यो राय श्री गुरुपय नमी ।। चौः ६२० । लोक ३, वेद ४, सिणगार १६-१६४३ । ३ श्री अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर, ग्रं० ४२०६। ४. मोहालाल दलीचव देसाई, मानन्दकाव्य महोदधि, मौलिक ७, पृ. १५६ । ५. मोहनलाल दलीचंद देसाई, प्रानन्दकाव्य महोदधि, मो०७,१०१५६ । ६. डा० जे. सी. जैन, प्राकृत जैन कथा साहित्य, पृ० १६६ । ७. मुनि हस्तीन मेवाड़ी, प्रागम के अनमोल रत्न,। ८. डा. जे. सी. जैन, प्रकृत जैन कथा साहित्य पृ.१७७। उझारि अवकप अध तात ताल भयंग बध कठि एकविण हरक सीर सग्रही, मनुष्य दुक्ख स्यू रहा । गयंद मत्त रोसि तत्त, धूणी लाग सह सहस, मषियां चट्टक पीर ऊपजी सबही सरीर, वेदना सहहिं ।। परति मुख्की मद्द लरूक वरूक लाल विक्खई, माहार को पुरुष तेण वार, पाऊ ज्यूं उगार माप ही कहइ । सहत बिंदु तास मुरुक ना तजइ महत्त दुख्ख, देषि जे ससार सुरुख, जांणि जे विचार मुरूक, सुख्ख ज्यूं लहइ ।। श्री अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर, ४२०६, गाथा २३ ।

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