Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 110
________________ २८ वर्ष ३० कि० ३-४ मनेकान्त निष्कर्ष यह हुआ कि यथार्थ योगस्वरूप का प्ररूपक यह योगसार प्राभृत ग्रन्थ अध्येता के लिए परमात्मा का साक्षास्कार कराने वाला है । जयधवला (१, पृ० ३२५ ) के अनुसार प्राभृत (प्र+घाभूत) यह होता है जो प्रकृष्ट पर्यात् सर्वोकृष्ट तीर्थंकर द्वारा प्रस्थापित हुआ है, अथवा प्रकृष्ट अर्थात् विद्यास्वरूप थन से सम्पन्न ऐसे भारतीय श्राचार्यो के द्वारा धारण किया गया - जिसका व्याख्यान किया गया हैया पूर्व परम्परा से जो लाया गया है । यह है मुख्तार सा० की सूक्ष्म दृष्टि जो ग्रन्थकार के हृदय को स्पर्श कराती है । इम ग्रन्थ-नाम की यथार्थता मे ग्रंथकार को योग शब्द से उपर्युक्त प्रशस्त ध्यान ही अभीष्ट रहा है। यथा है- (१) जीवाधिकार (२) जीवाधिकार, (३) घाल वाधिकार, ( ४ ) बन्धाधिकार, (५) संवराधिकार ( ६ ) निर्जराधिकार, (७) मोक्षाधिकार और (८) चारित्राविकार प्रतियों में नौवें अधिकार का कोई विशेष नाम नहीं उपलब्ध हुआ उसका उल्लेख प्राय: 'नवमाधिकार' - के नाम से हुआ है । भाष्यकार ने उसका निर्देश 'चूलिका धिकार' नाम से किया है। इसका स्पष्टीकरण उन्होंने इस प्रकार से किया है- "दूसरे अधिकारों की तरह उसका कोई खास नाम नही दिया गया, जबकि ग्रंथसन्दर्भ की दृष्टि से उसका दिया जाता आवश्यक था। वह अधिकार सातों तत्त्वों तथा सम्यक्चारित्र जैसे आठ अधिकारों के अनन्तर 'चूलिका' रूप में स्थित है - अधिकारों के विषय को स्पर्श करता हुआ उनकी कुछ विशेषताओंों का उल्लेख करता है और इस लिए उसका नाम यहां 'चूलिकाकार' दिया गया है। जैसे किसी मन्दिर (भवन) की वृलिका चोटी उसके कलशादि के रूप में स्थित होती है, उसी प्रकार 'योगसार प्राभूत' नामक इस ग्रंथ भवन की चूलिका चोटी के रूप में यह नवमा अधिकार स्थित है, अतः इसे 'चूलिकाधिकार' कहना समुचित जान पड़ता है ।" विविकारमपरिज्ञान योगात् संजायते यतः । योगो योगभितो योगनिपातः ॥ -यो० सा० प्रा० ६-१० अर्थात योग से कर्म कालिमाको पो डालने वाले योगियों ने योग उसे ही कहा है जिसके प्राश्रय से विविक्त - समस्त पर भावों से भिन्न शुद्ध - श्रात्मतत्त्व का बोध होता है। इस प्रकार, चूकि वह ग्रात्माववोध प्रशस्त ध्यान से ही सम्भव है, अतः वही प्रकृत मे ग्राह्य रहा है । इस प्रकार अपने उक्त सार्थक नाम के अनुसार योगस्वरूप की प्ररूपणा करने वाला प्रस्तुत ग्रंथ अतिशय मनोमोहक है उसकी भाषा सरल व मूलित है। विषय के प्रतिपादन की शैली भी उत्कृष्ट है । ग्रंथकार श्री श्रमितगति ने भगवान् कुन्दकुन्द के समस्त साध्यात्मिक साहित्य का मनन कर तदनुसार ही इस ग्रंथ की रचा है। उसके बहुत से लोकों में समयसारादि ग्रंथोंकी छाया स्पष्टतया दृष्टि गोचर होती है। इसे भाष्यकार तुलनात्मक रूप से कहीं अपनी व्याख्या के मध्य में प्रोर कही टिप्पणी के रूप मे इतर ग्रथगत समान उद्धरणो को देकर स्पष्ट भी कर दिया है। ग्रंथ का प्रमुख विषय योग है। उसके विवेचन के लिए जिन प्रासंगिक विषयों का जीवाजीवादि तत्वों का विवेचन श्रावश्यक प्रतीत हुम्रा, उनका भी वर्णन ग्रंथ मे कर दिया गया है। तदनुसार ग्रंथ इन नो अधिकारों में विभक्त १. मादा णाणपमाण णाण शेयष्यमाणमुद्दिट्ठ । णेय लोगालोगं तम्हा णाण तु सव्वगय || - (प्रस्तावना पृ० २५) ग्रंथगत समस्त श्लोक संख्या ५४० है । विषय का विवेचन अधिकारों के नागानुसार यथास्थान रोचक प्राध्यात्मिक पद्धति से किया गया है। उसका परिचय भाष्यकार ने प्रस्तावना पृ० २५-३१ मे श्लोक संख्या के निर्देशपूर्वक स्पष्टता से करा दिया है । प्रथम जीवाधिकार के अन्तर्गत प्रात्मा और ज्ञान के प्रमाण तथा ज्ञान की व्यापकता को बतलाने वाला निम्न श्लोक प्राप्त होता है ज्ञानप्रमाणमात्मानं ज्ञानं ज्ञेयप्रमं विदुः । लोकालोक तो यज्ञानं सर्वगतं ततः ॥१९॥ यह श्लोक प्रवचनसार, गा० १ २३ का प्रायः छायानुवाद है' इस श्लोक की व्याख्या मुख्तार सा० ने सरलतापूर्वक विस्तार से की है । श्रात्मा ज्ञानप्रमाण क्यों है. इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होने यह बतलाया है कि

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