Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 113
________________ मुख्तार श्री : व्यक्तित्व और कृतित्व मुख्तार श्री जुगल किशोर जी का जन्म का नूनगोयान वंश में मगसिर सुदी एकादशी ० १८३४ मे सरसावा मे हुप्रा था। उनके पिता का नाम चौधरी नत्थूमल था और माता का नाम भूदेवी था। मुख्तार साहब बाल्यकाल से पढ़ने में चतुर थे उन्होंने उर्दू फाभी और ग्रेजी में मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। पढ़ने की रुचि अधिक थी । अतएव धार्मिक ग्रन्थो का भी अध्ययन किया। शुरू मे मुख्तारकारी का काम सहारनपुर में किया, किन्तु बाद मे देवबन्द चले गए और वहां अपना कार्य करने लगे । उनका विवाह हो गया और वे गार्हस्थ जीवन बिताने लगे । कुछ समय बाद उन्हें वकायत से घृणा हो गई और उन्होने उसका परित्याग कर दिया । . मानार्य जुगल किशोर मुस्तार इस युग के साहित्य तपस्वी और जैन साहित्य और इतिहास के वयोवृद्ध विद्वान लेखक थे। वे पनके सुधारक, स्वाभिमानी, अपनी बात पर अडिग प्रतिभा के धनी धौर समीक्षक थे उनकी प्रतिभा तर्क की कसौटी पर कसकर ही किसी बात को स्वीकार करती थी। वह जो कुछ भी लिखते, निडर होकर लिखते, दूसरे के लेख में कमी या विरुद्धता पाते तो उसका निराकरण करते। उनकी भाषा कुछ कठोर होती तो भी वे उसे सरल नहीं बनाते हा वे जो कुछ लिखते थे उसे बराबर सोच समझकर लिखते । उसमे विलम्ब भले ही हो जाता, पर वह सम्बद्ध विचारधारा से प्रतिकूल नहीं होता था। मुझे उनके साथ सरसावा घोर दिल्ली मे वीर सेवा मन्दिर में काम करने का वर्षों अवसर मिला है जो लेख में लिखना चाहते थे उन पर से पहले चर्चा कर लेते थे, धौर फिर लिखने बैठते लेख पूरा होने पर या कभी-कभी तो अधूरा लेख ही सुना देते या पढ़ने को दे देते थे । उसके सम्बन्ध मे वे जो कुछ पूछते व प्रमाण मांगते वह यथा संभव मैं उन्हें तलाशकर देता था । I श्री परमानन्द जैन शास्त्री कभी कभी वे रात को दो बजे लिखने बैठ जाते, तब मुझे आवाज देकर बुलाते और मैं खाकर उन्हे यथेष्ट ग्रंथ या प्रमाण निकालकर दे देता। वे लिखना प्रारम्भ करते और उसे पूरा करने में लगे रहते, उठने-बैठने सदा उसी का विचार करते रहते थे। उसके पूरा होने पर ही वे विराम नेते फिर मुझे उसकी कापी करने को देते और कापी होने पर वे उसे छपने को भिजवाते थे । जब मै कोई लेख लिखता तो उन्हें जरूर सुनाता | सुनकर वे जो कुछ निर्देश करते उसके अनुसार ही उसे पूरा कर उन्हें दे देता। इससे लेख में प्रामाणिकता आ जाती और अशुद्धिवा भी नही रहती थीं। I षद्यपि मुख्तार साहब की प्रकृति मे नीरसता थी और वह कभी-कभी कठोरता मे भी परिणत हो जाती थी तथा कपाय का प्रवेशमी उनमें झुंझलाहट उत्पन्न करता, पर वे उसे बाहर प्रकट नहीं करते थे । अवसर प्रा पर उसका प्रभाव अवश्य कार्य करता था। वे इतिहास की दृष्टि में सम्प्रदायिक थे। उन्हें सम्प्रदाय से इतना व्यामोह नही था, वे सत्य को पसन्द करते थे । प्रमाण व युक्ति से जो बात सिद्ध होती थी, उसे कभी भी बदलने को तैयार नहीं होते थे अनेक अवसरों पर वे इस बात मे खरे थे । प्रमाण-विरुद्ध बात को कभी स्वीकार नहीं करते ये घोर न सुनी सुनाई बातों पर प्रास्था ही करते थे। जैसे कोई दार्शनिक या वकील अनेक तरह की दलीलें देकर मुकदमा वा विवाद को जीतने का प्रयत्न करता है, वैसे ही मुख्तार साहब भी आधार पर अपना श्रभिमत व्यक्त करते श्रथवा लेख का निष्कर्ष निकालते थे इसलिए उनके लेख विद्वत जगत में ग्राह्य और प्रमाण रूप मे माने जाते है । वे अपनी सूक्ष्म विचार पारा एवं मालोचना और समीक्षात्मक दृष्टि से पदार्थ पर गहरा चिन्तन तथा मनन करते थे। उनके समीक्षा प्रथ भी इसी बात के द्योतक प्रमाणों के

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