Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 59
________________ महाबीर ने कहा था YE 'खंती मद्दव मज्जव लाघव तव संजमो प्रकिंचणदा। समान रूप से जीव हैं और 'सध्वेसि जीवियं पियं' सभी तह होइ बम्हचेरं सच्च चागो य दस धम्मा ॥' को अपना जीवन प्रिय है, ऐसा मानने वाले उस जीव___ क्षमा, मार्दव, पार्जव, शुचिता, तप, संयम, पाकिचन्य, वन्धु करुणासागर का अपने अनुयायियों के लिए उपदेश ब्रह्मचर्य, सत्य और त्याग ये धर्म के दस रूप हैं। इसलिए था 'पाय तुले पयासु' सभी प्राणियों को अपने समान उस धर्मोपदेशक ने अपने अनुयायियों को धर्म के इन रूपो समझो, 'जह तेण पियं दुक्ख, तहेव तेमिपि जाण जीवाण' को स्पष्ट किया। वह अपनी धारणा जबरदस्ती किसी जिस प्रकार तुम्हें दुख प्रिय नही है, वैसे ही अन्य जीवों पर लादना नहीं चाहते थे। उनकी तो मास्था थी 'विवेग्गे के बारे मे जानो भौर इसलिए 'सम्वेहि भूएहि दयाणकंपी' धम्ममाहिय' मनुष्य का धर्म उसके सद् और प्रसद् विवेक सभी प्राणियो पर दया और अनुकम्पा करो। उन्होंने में निहित है तथा यह कि धम्मो सुखस्स चिट्टई' शुद्ध चित्त आगे बताया 'जीववहो अप्पवहो, जीवदया होइ अप्पणो में धर्म निवास करता है । वह जानते और मानते थे हु दया' किसी जीव (प्राणी) का वध करना प्रात्मवध है 'णाणा जीवा णाणाकम्म णाणाविहं हवेलद्धी। और किसी दूसरे जीव पर दया करना अपने पाप पर तम्हा वयण विसादं सगपर समएहिं वज्जिज्जो ।' दया करना है। यह भी कहा 'असंगिही य परिजणस्स लोक में अनेक जीव है, कर्म भी अनेक प्रकार के है। संगिण्हणयाए भब्भुट्ट्यव्वं भवइ' अनाधित और असहाय पौर प्रत्येक व्यक्ति की नाना प्रकार की उपलब्धिया होती व्यक्तियों को प्राश्रय एवं सहयोग-सहायता देने के लिए है । प्रतएव अपने मत अथवा दूसरे मत के मानने वाले सदा तत्पर रहना चाहिए तथा 'गिलाणस्स अगिलाए सदा तत्पर रहना चाहिए किसी भी व्यक्ति के साथ वचन-विवाद (वाद-विवाद) वेयावच्चकरणयाए अब्भुट्ट्यत्व भवई' ग्लानियुक्त रोगी करना उचित नहीं है। मंत्रीपूर्ण सह-अस्तित्व के पोषक व्यक्ति को ग्लानि रहित नीरोग करने के लिए उसकी उस शास्ता ने 'यही ठीक है' के कदाग्रह के कारण संसार परिचर्या सेवा-सुश्रुषा उत्साह और तत्परता के साथ करनी . मे होने वाली अनेक कलहों को मिटाने का उपाय 'यह चाहिए । इस परोपकारी महात्मा का अपना विश्वास था :' भी ठीक हो सकता है' ऐसा समझने, स्वीकार करने से 'समाहिकारएणं तमेव समाहि पडिलब्भइ' जो दूसरों को संभव है, जानकर 'तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो प्रणेमंत सुख देने का प्रयत्न करता है वह स्वयं भी सुख पाता है वायस्स' लोक के उस एक मात्र (अप्रतिम) गुरु अनेकान्त तथा वेयावच्चेण तित्थयरनामगोय कम्मं विवधेई' सेवावाद को नमस्कार किया। धर्म का पालन करने से तीर्थदर-पद प्राप्त होता है। उन्तीस वर्ष की अल्प वय में घरबार त्याग देने के और उन्होंने इस विश्वास को अपने लिए चरितार्थ भी उपरान्त अपने निर्वाण पर्यन्त ७२ वर्ष की प्रायु तक वह कर लिया तभी तो वह तीर्थकर कहलाये। उन्होने जो कभी प्रमादो बनकर नहीं रहे। प्रात्मोद्धार और लोको- भी भी उपदेश दिया उसे पहले अपने प्राचरण में उतारा । द्वार के लिए सतत चिन्तन-मनन में लगे रहे और अपने प्रात्मा को परमात्मा तक ऊँचा उठने और मानव को तपःपूत ज्ञान और अनुभव का प्रसाद लोगों को घमघम महामानव बनने का मार्ग दिखाया। कर बांटते रहे। उनके अनुभव ने बताया 'सव्वतो पमत्तस्स इन परोपकारी शास्ता का जन्म ईसा मसीह से ५६९ भयं, सव्वतो अपमत्तस्स नत्थि भयं', प्रमत्त (प्रमादी वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन बिहार प्रदेश में अर्थात् पालसी) व्यक्ति को सब जगह भय है, अप्रमादी कृण्डग्राम नामक स्थान पर ज्ञात वंशी, काश्यपगोत्री (जो पालसी नहीं है) को कही भी भय नहीं होता। क्षत्रिय सरदार सिद्धार्थ के घर हुप्रा था। इनकी माता अपना प्रादर्श प्रस्तुत करते हुए इस कर्मवीर ने लोगों को त्रिशला वज्जिगणसघ के अधिनायक विदेहराज चटक की उद्बोधित किया, 'उट्ठिए, णो पमायए' उठो, प्रमाद मत पुत्री थीं। माता और पिता दोनो ही भोर से तत्कालीन करो। अनेक बड़े राज-परिवारों से उनका सबध था। उनके 'हत्थिस्स य कंथस्स य समेजीवे' हाथी और चीटी [शेष पृ. ५३ पर]

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