Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 32
________________ ३०, बर्ष ३०, कि० १ त परमात्मा हो सकता है। परन्तु वह मान रहा है कि नहीं हम चल भी सकते है और उससे किसी को मार महाराज! मझे तो अापकी सेवा ही करनी है। जो हैं, उसको जला भी सकते हैं। ये सब शक्तियां सस भगवान होना चाहता है, उसके हृदय में स्वाभाविक भक्ति की उसमें हैं, यह हमारा चुनाव है कि हम उसे किस का भगवान के प्रति होगी ही, परन्तु भिखमगापना नही मे निमित्त बनाते है। मानो यह कहा जा रहा है कि मैं भगवान बन भगवान की मूर्ति प्रात्मा का शुद्ध स्वरूप है और कर रहूंगा वहां भीख मागना नहीं है। हमारी प्रात्मा अशुद्ध स्वरूप है। जैसे कसौटी पर एक अमली सोने की लकीर लगाई जाती है, एक मिलावटी मति के सामने जब हम जाते है तब जैसे किसी का की और जौहरी यह नक्की करता है कि इसमे कितना छाता देखकर या चश्मा देखकर हमे अपना छाता या बट्टा है। बड़ा माने खोट, जो ग्रहण करने योग्य नहीं है चश्मा याद आ जाता है और फिर हम उपकार से उसको और अगर वह खोट निकाल दी जावे तो दोनों लकीरें कहते है कि तुमने मके अपना चश्मा याद दिला दिया। समान हो जाएंगी। ऐसी मूर्ति के सामने जाकर हमें वस्तुतः देखा जाए तो वह कहता है कि मैने क्या किया? मैं देखना है कि हमारे मे कितना बड़ा है? जिस रोज वह तो अपना चश्मा लेकर जा रहा था, उसको देखकर अगर बट्टा समझ में प्रा जाएगा, भेद विज्ञान हो जाएगा। सोने तुम्हे अपना चश्मा याद पा गया अथवा तुमने अपना से खोट वही दूर कर सकता है जिसने पहले सोने और जरमा याद कर लिया तो इममे मेरा क्या है? इसी खोट के भेद को जान लिया है। प्रकार, हम भी उस मूति को देखकर अपन स्वरूप का एक वक्ष पर एक पका आम लगा है और एक कच्चा याद कर लें तो उपकार से कहते है कि हे भगवन् ! आम लगा है। कच्चा आम कह रहा है पके ग्राम को कि पापने मुझे अपना स्वरूप याद दिला दिया। इसलिए तुम और मैं एक ही वृक्ष के, एक ही जाति के प्राम है, रोज दर्शन करना जरूरी है जिससे उनका स्वरूप देखकर तुम भी पहले कच्चे थे और कच्चे से ही पक्के ग्राम हुए अगर अपने स्वरूप की याद आ जावे तो सम्यकदर्शन हो हो और मुझमे भी पका पाम होने की शक्ति है। पका जावे । जितने भी बाहरी निमित्त होते है वे कार्य कर दे ग्राम होकर रहगा। यहा भक भगवान को कह रहा है कि यह उनकी सामथ्र्य नहीं होती, उनको निमित्त बनाकर आपकी और मेरी एक ही जाति है, प्राप में और मुझमें क्या हम कार्य कर लें ऐसा वस्तुतत्त्व है। हमे सोचना है कि फर्क है ? द्रव्य दृष्टि से वस्तुत. तो कोई फर्क है नही, स्त्री ने राग करा दिया अथवा स्त्री का प्राश्रय लेकर गुणो की अपेक्षा भी कोई फर्क नहीं । पाप भी अनन्त हमने राग कर लिया है । दोष स्त्री का है कि हमारा? गुणात्मक है, मै भी अनन्त गुणात्मक ह; प्राप से मेरे में इस बात को जिस रोज समझेगे तब पुरुषार्थ जागृत एक गुण भी कम नहीं है। आप भी असंख्यात प्रदेशी है होगा। यहा निमित्तपन का निषेध नहीं, परन्तु गलती और मैं भी असंख्यात प्रदेशी है । आप मे और मुझ मे फर्क निमित्त को नही, हमारी है। इसलिए निमित्त से राग. मात्र इतना है कि प्रापके गुणो का पूर्ण विकास हो गया द्वेष अथवा उसको भला-बुरा कहने का कोई प्रयोजन नहीं है, आपकी पर्याय शुद्ध रूप हो गई है, मेरे गुणो का पूर्ण है। गलती हमारी हं, हमने उसका निमित्त बनाया है, विकास हुआ ही नही है, मरी पर्याय प्रशुद्ध है। परन्तु यह हमारा चयन है, चुनाव है। हम किसको निमित्त मुझमे भी अपनी पर्याय को शुद्ध करने की शक्ति है और बनावें यह हमारी स्वाधीनता है, पराधीनता नही। यही मै भी अपनी पर्याय शुद्ध करके रहूगा। प्रापमे पोर मुझमे बास देवदर्शन में है। हम उसको प्रात्मदर्शन में निमित्त समय की अपेक्षा से मात्र एक अंतर्मुहर्त का फर्क है। अगर बनावें अथवा अन्य किसी कार्य के लिए। सम्यकदर्शन मै अपना पूरा पुरुषार्थ करूं तो एक अतमुहुर्त में प्रशुद्ध तभी होगा जब हम प्रात्मदर्शन में उसको निमित्त बमा- पर्याय से शुद्ध पर्याय कर सकता है। इस प्रकार से जो यंगे । बनाना हमे पड़ेगा। लकड़ी है, उसका महाग लेकर कोई भगवान के द्रव्य-गुण-पर्याय के साथ अपना मिलान

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