Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 20
________________ १८, वर्ष ३०, कि. १ प्रनेकान्त होगा। राग से संवर और निर्जरा नही हो सकती । जो जो पुराना कर्म अस्तित्व में पड़ा है उसका स्थिति-अनुभाव कर्म पाने का कारण है वही कम रोकने का कारण नही कम हो जाता है। जितनी-जितनी निर्मलता बढ़ती है हो सकता, अन्यथा विपरीतता हो जाएगी। कही पर ऐसी पहले बधे हुए कर्म का स्थिति-अनुभाव कम होता जाता है, अवस्था भी होती है जहां मिश्रित भाव होता है और जब वह उदय में प्राता है उस समय जितने अनुवहां जितना निर्मलता का अश है वह सवर-निर्जरा का भाव को लेकर बधा था उतना अनुभाव उदय काल में कारण है, जो मलिनता का प्रश है वह नो बंध का नही रहता; जैसे, हो सकता है कि ६० प्रतिशत अनुभाव ही कारण है। जहां कही इस मिश्र अवस्था को मंवर का वाला कर्म जन उदय को प्राप्त हो तब ४० प्रतिशत अनुभाव कारण लिखा है, वहां ऐमा समझना चाहिए कि राग से को लेकर ग्रावे। इसलिए ऐसा तो नियम है कि उदय के संवर नहीं, राग से तो बंध ही है, परन्तु साथ रहने अनुमार परिणाम होंगे पोर परिणामों के अनुसार बंध वाली निर्मलता से संवर-निर्जरा है, इसलिए उपचार होगा, परन्तु बंध के अनुसार उदय होगा ऐसा से, राग घटने की मख्यता से, कथन किया गया है। दो नियम नही है । निज मे निजपना पाने के बाद जितना गलतिया जीव से होती हैं-पहली 'पर' में अपनापना और निज मे ठहरने का पुरुषार्थ करता है, वह व्यवहार है दूसरी अपने ठहरने में प्रात्मबल की कमी। पहली गलती और जितना निज मे ठहरता है वह परमार्थ है जिससे मिथ्यात्व कहलाती है और दूसरी गग-द्वेष । अपने मे कर्मों का प्रभाव होकर प्रात्मा शुद्ध हो जाती है। जब निज अपनापना प्रा गया, इसलिए मुल संसार का कारण तो ठहरने की चेष्टा करता है तो उतने मात्र से कम हलि होने छुट गया परन्तु अभी तक प्रात्मबल की कमी की वजह से लगते हैं। बाहर से देखने वाला कहता है कि इसने कर्म काटे 'स्व' में ठहर नही सकता, तब 'पर' में परणति होती है। है, शरीर मन-वचन-काय का निरोध किया है और राग-द्वेष प्रात्मबल की कमी से 'पर' का प्राश्रय लेना पड़ता है। को मिटाया है। अमल मे भीतर से देखें तो यह समझ में यह जो 'पर' का अवलम्बन है वही राग-द्वेष है । इन्ही को प्राता है कि हमने तो निज मे ठहरने का पुरुषार्थ किया शास्त्रीय भाषा में दर्शन मोह और चारित्र-मोह के नाम है. ोमा करने पर बाहर में राग-द्वेप भी मिटे है, योग का से कहा गया है। दर्शन-मोह याने दृष्टि का, समझ का, प्रभाव भी हना है, कर्म भी कटे है। इसलिए मूल ज्ञान का मोहित होना अथवा विपरीत होना और चारित्र बात मात तत्वों में यही रही कि जीव को जीव रूप समझे, मोह याने निज में ठहरने के पुरुषाधं का न होना । इसको अजीव को अजीव रूप मममें और फिर अजीव से हटकर इस प्रकार भी समझ सकते है। जब तक अपने में जीव मे ठहरने का पुरुषार्थ करे।। अपनापना नहीं पाता तब तक अपने में ठहरने का पुरु- इमको फिर इस प्रकार समझना है . पहले द्रव्य और षार्थ भी कैसे हो सकता है, और जब दोनो प्रकार का कार्य भाव रूप सात तत्वो को जानें। शास्त्र के माधार पर हो जाता है, याने निज में निजपना पा जाता है और फिर जान लेने से मात्र प्राश्रव-बध के बारे मे तो जानकारी निज में ठहर जाता है तो अन्तरमहूर्त काल में, अनन्तकाल होगी परन्तु अभी भी पाश्रव-बघ को जानना बाकी रह का पड़ा हुमा जो 'पर' में रमण करने का पुरुषार्थ है वह जाएगा। इनके बारे में जानना शास्त्र से होता है। परन्तु टूट जाता है । इसलिए पहले यह समझना जरूरी है कि इनको जानना अपने में पहचानने से होता है । इसलिए इन अन्तर में होने वाला 'पर' से एकपना और राग-द्वेष येही मातों का शास्त्र से जानना तो इनके बारे में जानना है बंध के कारण है। इसके विपरीत अपने में अपनापना सवर और इनको अपने मे जानना सो वास्तव मे इनको जानना का कारण है और क्योंकि राग-द्वेष बध का कारण था, है। इसलिए इनके बारे में जान लेने पर भी इनका जानना इसलिए उससे विपरीत वीतरागना निर्जरा का कारण है। बाकी रह जाता है और इनके जाने बिना सम्यकदर्शन मोक्ष मार्ग मे दो कार्य एक-साथ होते है-वर्तमान नही होता। इस प्रकार मुख्य तो इनको जानना है । यहा निर्मल परिणामों से नया कर्म नही पाता भोर दूसरा, पर भी दो दृष्टिया हैं-एक श्रव-बंध-सवर-निर्जरा को

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