Book Title: Anekant 1940 01 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 9
________________ वर्ष ३, किरण ३] धवलादि श्रुत-परिचय २११: फाल्गुने मासि पूर्वान्हे दशम्यां शुक्लपक्षके। .. और साथ ही आपकी 'धवला' भारतीको स्पष्टरूपसे प्रवर्धमानपूजोरुनन्दीश्वरमहोत्सवे ॥७॥ नमस्कार भी किया है । वीरसेनके शिष्य होनेसे ये भी अमोघवर्षराजेन्द्र-प्राज्यराज्य-गुणोदया। पंचस्तूपान्वयी आचार्य हैं और इसलिये इनकी भी निष्ठिता प्रचयं (?) यायादाकल्पान्तमनल्पिका ॥८॥ गुरुपरम्परा चन्द्रसेनाचार्यसे प्रारम्भ होती है-एलाचाषष्ठिरेवसहस्राणि ग्रन्थानां परिमाणतः। यसे नहीं। 'विद्वद्रत्नमाला' में उसका एलाचार्यसे श्लोकानुष्टभेनात्र निर्दिष्टान्यनुपूर्वशः ॥६॥ प्रारम्भ होना जो लिखा है वह ठीक नहीं है । विभक्तिः प्रथमस्कंधो द्वितीयः संक्रमोदयौ । ___ जयधवलाकी उक्त प्रशस्तिमें, वीरसेनका परिचय उपयोगश्च शेषास्तु तृतीयः स्कन्ध इष्यते ॥१०॥ . . देनेके बाद, जिनसेनको वीरसेनका शिष्य बतलाते हुए, एकान्नषष्ठिसमधिकसप्तशताब्देषु शकनरेन्द्रस्य । जो परिचयका प्रथम पद्य दिया है वह इस प्रकार हैसमतीतीषु समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या ॥११॥ तस्य शिष्यो भवेच्छीमान् जिनसेनः समिधीः । यह बात ऊपर बतलाई जाचुकी है कि धवला भाविद्धावपि यत्करणौ विद्वौ ज्ञानशलाकया ॥ २७ ॥ टीका शकसंवत ७३८में बनकर सम इससे मालूम होता है कि श्रीजिनसेन वीरसेनाचा बाद ही यदि जयधवला टीका प्रारम्भ करदी गई थी, र्यके तीव्र बुद्धि शिष्य थे। साथ ही, यह भी मालूम जिसका उसके अनन्तर प्रारम्भ होना बहुत कुछ स्वा होता है कि आप अाविद्धकर्ण थे अर्थात् आपके दोनो भाषिक जान पड़ता है, तो यह कहना होगा कि जय कान बिंधे हुए थे, फिर भी आपके कान पुनः ज्ञानधवलाके निर्माण में प्रायः २१ वर्षका समय लगा है। शलाका से विद्ध किये गये थे, जिसका भाव यही च कि इसका एक तिहाई भाग ही वीरसेनाचार्य लिख जान पड़ता है कि मुनि-दीक्षाके बाद अथवा पहले पाये थे, इसलिये वे धवलाके निर्माण के बाद प्रायः श्रापको गुरुका खास उपदेश मिला था और उससे ७ वर्ष तक जीवित रहे हैं, और इससे उनका अस्तित्व आपको बहुत कुछ प्रबोधकी प्राप्ति हुई थी। काल प्रायः शक संवत ७४५ तक जान पड़ता है। आप बाल-ब्रह्मचारी थे—बाल्यावस्थासे ही आपने - इस तरह यह वीरसेनाचार्यका धवल-जयधवलके * आदिपुराणके वे पद्य इस प्रकार हैं:आधार पर संक्षिप्त परिचय है । अब जिनसेनाचार्य के परिचयको भी लीजिये। श्रीवीरसेन इत्यात्त-भट्टारकपृथुप्रथः । श्री जिनसेनाचार्य स नः पुनातु पूतात्मा वादिवृन्दारको मुनिः ।।५।। जयधवलके उत्तरार्धके निर्माता ये जिनसेनाचार्य लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयं। वे ही जिनसेनाचार्य हैं जो प्रसिद्ध श्रादिपुराण ग्रंथके । वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचस्पतेरपि ॥५६॥ रचयिता हैं और प्रायः भगवज्जिनसेनके नामसे उल्ले- सिद्धान्तोपनिबन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्चिरम् । खित किये जाते है । श्रादिपुराणमें भी इन्होंने "श्री- मन्मनःसरसि स्थेयान्मृदुपादकुशेशयम् ॥ ५७ ॥ वीरसेन इत्यात्त भट्टारकपृथुप्रथः' इत्यादिं वाक्योंके द्वारा धवला भारती तस्य कीर्ति च शुचि-निर्मलाम् । श्रीवीरसेनाचार्यका अपने गुरुरूपसे स्मरण किया है धवलीकृतनिःशेषभुवनां तां नमाम्यहम् ॥ ५६ ।।Page Navigation
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