Book Title: Anekant 1940 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 36
________________ २३८ ] अनेकान्त [पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६ इसी संघर्ष के कारण अन्धकारमय नहीं हुआ ? प्रद्युम्नकुमार अपने रूपसे मस्त है, फिर भी हे नारद, इन प्रश्नोंका उत्तर नीचेकी पंक्तियोंमें यथाशक्य मैं असहाय हूँ। दूसरे अंधक वृष्णि लोग वास्तवमें और यथास्थान दिया जायगा। महाभाग, बलवान और पराक्रमी हैं। हे नारद, ज्ञातवंश का मूल वे लोग राजनैतिक बलसे संपन्न रहते हैं। वे जिसके पक्षमें होजाते हैं उसका काम सिद्ध हो जाता है, अन्वेषण करने पर 'ज्ञाताधर्मकथा' आदि और जिसके पक्षमें वे नहीं रहते उसका अस्तित्व जैन आगमोंमें 'ज्ञातकुमारों' के दीक्षित होने के नहीं रहता। यदि आहुक और अक्रूर किसीके संबंधमें संक्षिप्त नाममात्र, देखनेको मिलता है। पक्षमें हों तो उसका कौन काम दुष्कर है? और यदि जैनेतर साहित्यमें-महाभारत ग्रंथमें-इस वंशकी वे विपक्षमें हों तो उससे अधिक विपत्ति ही क्या हो उत्पत्तिकी रूपरेखा कुछ स्पष्ट रूपसे दिखाई देती है, सकती है। इसलिये दोनों दलोंमेंसे मैं निर्वाचन जब कि यदुकुलतिलक महाराजा कृष्ण वासुदेव नहीं करसकता। हे महामुने, इन दोनों दलोंमें मेरी नारद महामुनिसे राज्यशासन-पद्धतिका परामर्श हालत उन दो जुआरियों की माताके समान हैं, जो करते हुए कहते हैं: अपने दोनों लड़कोमेंसे किसी एक लड़केके जीतने दास्यमैश्वर्यबादेन ज्ञातीनां वै करोम्यहम् । की या हारनेकी भी आकांक्षा नहीं कर सकती। अथ भोक्तास्मि भोगाना, वाग्दुरुक्तानि च क्षमे ॥५॥ तो हे नारद, तुम मेरी अवस्था और ज्ञातियोंकी बलं संकर्षणे नित्यं, सौकुमार्य पुनगर्दै । अवस्था पर विचार करो। कृपया मुझे कोई ऐसा रूपेण मत्त: प्रद्युम्नः सोऽसहायोऽस्मि नारद ।। . उपाय बताओ कि जो दोनोंके लिये श्रेयस्कर हो । अन्ये हि सुमहाभागा, बलवन्तो दुरासदाः । मैं बहुत दुःखी हो रहा हूँ। नित्योत्थानेन संपन्ना, नारदान्धकवृष्णयः ॥ यस्य न स्युनहि स स्याद् ,यस्य स्यु: कृत्स्नमेव तत। नारद उवाच द्वयोरेनं प्रचरतो, वृणोम्येकतरं न च ॥ आपत्योः द्विविधाः कृष्ण,बाह्याश्चाभ्यंतराश्च ह । स्यातां यस्याहुकाक्रू रौ, किं नु दुःखतरं ततः। प्रादुर्भवन्ति वार्ष्णेय, स्वकृता यदिवान्यतः ॥ यस्य चापि न तौ स्यातां, किं नु दुःखतरं ततः ॥ सेयमाभ्यन्तरा तुभ्यं, कृच्छा स्वकर्मजा । सोऽहं कितवमातेव द्वयोरपि महामुने । अक्रूर-भोज-प्रभवाः सर्वे ह्येते तदन्वयाः ॥ नैकस्य जयमाशंसे, द्वितीयस्य पराजयं ॥ अर्थहतोहि कामाद्वा, बीभत्सयापि वा । ममैवं क्लिश्यमानस्य, नारदोमयदर्शनात् । आत्मना प्राप्तमैश्वर्यमन्यत्र प्रतिपादितम् ॥ वक्तुमर्हसि यच्छ्यो , ज्ञातीनामात्मनस्तथा ॥ कृतमूलमिदानं तद् , ज्ञातिशम्दसहायवत् । अर्थात हे नारद, मैं ऐश्वर्य पाकर भी न शक्यं पुरा दातुं, वान्तमन्नमिव स्वयम् ॥ बभ्रूग्रसेनतो राज्य, नाप्तुं शक्यं कथंचन । ज्ञातियोंका दासत्व ही करता हूं, यद्यपि मैं अच्छे शाति-भेद-भयात्कृष्ण, त्वया चापि विशेषतः ॥ वैभव या शासनाधिकारको भोग करता हूँ नारदजीने कहा कि 'हे कृष्ण, गणतंत्रमें दो तो भी मुझे उनके कठोर शब्द सुनने ही प्रकारकी आपत्तियां रहती हैं। एक बाह्य दूसरी पड़ते हैं। यद्यपि संकर्षणमें बल और गदमें आभ्यंतर । जिनकी उत्पत्ति बाहरी दुश्मनोंसे होती सुकुमारता-राजसी ठाठ-प्रसिद्ध ही है और है वे बाह्य कहलाती हैं और जो अन्दरसे अपने ही

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68