________________
वव
३,
किरण ३
जैन और बौद्ध निर्वाण में अन्तर
खाली नहीं है । बौद्ध ग्रन्थोंमें एक कथा श्राती है । 'एक बार किसी चोरने एक आदमीके आम चुरा लिये । श्रामका मालिक चोरको पकड़कर राजाके पास लेगया, चोरने राजासे कहा 'महाराज, जो फल इस आदमीने लगाये थे वे दूसरे थे और जो मैंने चुराये हैं वे दूसरे हैं। अतएव मैं दण्डका भागी नहीं हूँ । इसपर राजाने कहा "यदि ग्रामोंका मालिक थाम नहीं लगाता तो तू चोरी कैसे कर सकता" इसलिए तू दण्डका भागी अवश्य है ।' कहने का अभिप्राय यह है कि उस समय भी क्षणभंगवाद मौजूद था । इसी लिये तो जैन विद्वानोंने उसमें 'श्रकृत-कर्म-भोग' नामका दोष दिया है। और वास्तवमें 'देखा जाय त यह ठीक ही है । कारण कि क्षणिकवाद बौद्धों की मजबूत भित्ति है । जिसपर अनात्मवाद और शून्यवाद नामक सिद्धांत रक्खे गये हैं । इस लिए ह मानना पड़ेगा कि क्षणिकवादका सिद्धांत पहला है। हाँ उसे तार्किक रूप भले ही बादमें दिया गया हो, जैसा कि रत्न-कीर्ति, शान्तरक्षित श्रादि बौद्ध विद्वानोंने अपने 'क्षणभंग - सिद्धि' 'तत्त्वसंग्रह' श्रादि ग्रंथों में किया है।
ब्रह्मचारीजीकी एक बात रह जाती है। वह यह कि बौद्ध ग्रंथों में निर्वाणको 'प्रजातं' और 'श्रमतं' ( अमृतं ) क्यों कहा ? ब्रह्मचारीज को शायद विदेशीय विद्वानों पर बहुत श्रद्धा है । इसलिए हम इसका उत्तर Childers के शब्दों में ही देंगे | Childers द्ध धर्म एक बड़े द्वि न् हो गये हैं; उन्होंने बौद्ध धर्मका एक कोश भी लिखा है । Childers का कहना है कि बौद्ध ग्रंथों में निर्वाणकी दो अवस्थायें बताई गई हैं-- एक अर्हत् अवस्था जो आनन्द स्वरूप है, दूसरी शून्यरूप -- श्रभावरूप अवस्था, जो अर्हत् अवस्थाकी चरम सीमा है ( The state of bliss
२६३
ful sanctification and ship and the annihilation of existence in which अर्हत् ship ends.) आगे चलकर वे लिखते हैं " अब देखना है कि बौद्ध धर्मका उद्देश्य क्या है ?” " अर्हत् अवस्थाकी प्राप्ति बौद्धधर्मका अंतिम उद्देश्य नहीं है। क्योंकि अर्हत् अवस्था नित्य अवस्था नहीं है; घर्हत् श्रमुक समय बाद काल धर्मको प्राप्त होते हैं । इस बात की पुष्टिमें बौद्धग्रन्थों में सैंकड़ों उल्लेख मिलते हैं कि अर्हत् मरण के पश्चात् जीवित नहीं रहते, बल्कि उनका अस्तित्व ही नष्ट हो जाता है" -
But since श्रर्हत्s die, भर्हत् ship is not an eternal state, & therefore it is not the goal of Buddhims. It is almost superfluous to add that not only is there no trance in the Buddhist scriptures of the containing to exist after death, but it is deliberately stated in innumerable passages that the does not live again after death, but ceases to exist उक्त विद्वान्का कथन है कि अर्हत् अवस्था 'सो पादिसे सनिव्वाण' अथवा 'किलेस परिनिव्वाण' की अवस्था है, जिसमें सब क्लेशोंका चय हो जाता है, और जहाँ केवल पंच स्कंध शेष रहते हैं । इस अवस्थाको बौद्ध ग्रन्थोंमें 'श्रजात' 'श्रमत' 'अनुत्तर' 'कुतोभय' आदि विशेषण दिये हैं। लेकिन बौद्धोंका निर्वाण अभी इससे और धागे है । उस निर्वाणको बौद्ध ग्रंथों में 'अनुपादिलेसनिव्वाण' अथवा 'खंध परिनिव्वाण' के नामसे कहा गया है । यह वह अवस्था है, जो अहंत् अवस्थाकी चरम सीमा है । यहाँ समस्त स्कंधोंका--रूप, वेदना, विज्ञान संज्ञा और