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आपका प्रवेश अति गम्भीररूप धारण कर गया था ।
न्यायशास्त्रादि विषयक अभ्यास कम होनेपर भी, रात दिन सतत स्वाध्याय परायण होने से, प्रायः प्रत्येक विषयमें आपका अच्छा अनुभव होगया था । सामान्यतया किसीको ऐसा प्रतीत नहीं होता था कि आपका इन विषयों में कम अभ्यास है ।
जहाँ कहीं भी आप रहते थे आपका दिन-रात विद्या- व्यासंग चलता था। आपके स्वभाव में नम्रता, कार्य में सतर्कता, परिणतिमें सत्यग्राहिता और व्य बहार में शुद्धता थी । साथ ही, आपके हृदयमें सदैव जिज्ञासावृत्ति और शास्त्रोद्धारकी उत्कट भावना बनी रहती थी । सत्र के साथ आपका प्रेमका बर्ता था और आप दूसरे साहित्यसेवियों को यथाशक्य अपना वाँछित सहयोग प्रदान करनेमें कभी आना-कानी नहीं करते थे । इन्हीं सब गुणोंके कारण मुनिजिनविजय और पं० सुखलालजी जैसे प्रकाण्ड विद्वान आपके प्रभाव से प्रभावित थे । पं० सुखलालजीने हाल में जो आपके कुछ संस्मरण 'प्रबुद्ध जैन ' नामके गुजराता पत्र में प्रकट किये हैं उनमें इस बात को स्वीकार किया है और स्पष्ट लिखा है कि- " आपकी नम्रता, जिज्ञासा और 'निखाताने मुझे बाँध लिया इस सत्यग्राही प्रकृतिने मुझे विशेष वश किया। पुस्तकों का संशोधन और सम्पादन कार्य करने में मुझे जो अनेक प्रेरक बल प्राप्त हुए हैं उनमें स्वर्गवासी मुनि श्री चतुरविजयजीका स्थान खास महत्व रखता है, इस दृष्टि मैं उनका हमेशा कृतज्ञ रहा हूँ ।"
आजसे कोई २०-२५ वर्ष पहले आप मुद्रित ग्रंथोंकी प्रस्तावना संस्कृत भाषा में ही लिखा करते
[पौष, वीर- निर्वाण सं० २४६६
थे । एकबार पं० सुखलालजीने उसकी अनुपयोगिता व्यक्त करते हुए कड़ी आलोचना की, जिसे आप कोई खास विरोध न करते हुए, पी गये और उसके बाद से ही आपने संस्कृत में प्रस्तावना लिखनेकी पृथाको प्राय: बदल डाला, जिसके फलस्वरूप उनके तथा उनके शिष्य के प्रकाशनों में आज अनेक महत्वकी ऐतिहासिक वस्तुएँ गुजराती भाषाद्वारा जाननी सुगम होगई हैं, ऐसा पं० सुखलालजी अपने उक्त संस्मरणात्मक लेख में सूचित करते हैं । और यह स्व० मुनिजीकी सत्याग्राही परिणतिका एक नमूना है, जिसने पं० सुखलालजीको विशेष प्रभावित किया था । अस्तु ।
अनेकान्त
सद्गत मुनि श्री चतुरविजयजी के जीवनका प्रधान लक्ष प्राचीन साहित्यकी सेवा था, जिसके लिये आप दीक्षा से लेकर अन्त समय तक — - कोई ५१ वर्ष पर्यंत - बड़ी ही तत्परता और सफलता के साथ बराबर कार्य करते रहे हैं। आप जहां कहीं भी जाते थे पहले वहां के शास्त्र भंडारोंकी जांच पड़ताल करते थे, जो भंडार अव्यवस्थित हालत में होते थे उनकी सुव्यवस्था कराते थे, ग्रन्थों की लिस्ट सूची तैयार करते थे, ग्रन्थोंको टिकाऊ कागज के कवर में लिपटवाते, गत्तोंके भीतर रखाते और अच्छे वेष्टनों में बंधवाते थे, उन पर लिस्ट के अनुसार नम्बर डालते थे और उन्हें सुरक्षित अलमारियों, पेटियों अथवा बोक्सों में क्रमशः विराजमान करते थे । जो ग्रन्थ जीर्ण-शीर्ण अवस्था में होते थे अथवा अलभ्य और दुष्प्राप्य जान पड़ते थे उनकी सुन्दर नई कापियाँ स्वयं करते और कराते थे ! दूसरेकी की हुई कापियोंका संशोधन करते थे, इस तरह आपके द्वारा तथा आपकी प्रेरणाको पाकर