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अनेकान्त
[पौष, वीर निर्वाण सं० २२६६
यह बात ब्राह्मणोंके लिये असह्य थी। उन्होंने फिर जातिगत हो गया। इसलिये उन धर्मोके उनकी तक-संगत-युक्तियोंसे निर्वाक् होकर जैन व अनुयायी क्षत्रिय वर्णको क्षत्रिय माननेसे ही बौद्ध धर्मके प्रवर्तकोंको नास्तिक, उनके अनु- ब्राह्मणोंने इनकार कर दिया । स्मृतियोंमें लिख यायियोंको पिशाचोंकी संतान, और उनकी तीर्थ- दिया, कि "कलो सन्ति न क्षत्रियाः”– कलियुगमें भूमियोंको अनार्यभूमि आदि आदि उपाधियोंसे क्षत्रिय होते ही नहीं । ब्राह्मणोंने, अपने इस प्रचार विभूषित (?) कर दिया था। उस समय श्रमण- से यथावांच्छित परिणाम न निकलते देख, एक ब्राह्मण संघर्ष अपनी पराकाष्ठाको पहुँच चुका था। चाल और चली । साम्राज्यवादी विचारोंवाले __ श्रमण-ब्राह्मण संघर्षकी तत्कालीन परिस्थितिको चहाण, पडिहार, सोलंकी आदि उत्तरी भारतके देखते हुए कई लोग अनुमान कर बैठते हैं, कि,
कई क्षत्रियोंको आबू पर्वत पर यज्ञ समारोहमें
. जहां ब्राह्मणोंने जैन-बौद्धोंको अनार्य, पिशाच,
निमन्त्रित किया । उनमें कई ज्ञातवंशी भी नास्तिक आदि बताया, वहां श्रमण-सम्प्रदाय
शामिल हुये थे उन सबको ब्रह्मणोंने, उन पर अपनी वालोंने उन्हें "ब्राह्मणाः धिग्जातयः"कहना-लिखना
भेद नीति चलाते हुए, अग्निकुली विशेषण देकर शुरू कर दिया। जिसकी छाया भगवान महावीरके
एक नये कुलकी स्थापना करदो । और इस समागर्भ-परिवर्तनकी घटनामें स्पष्टरूपसे झलक रही।
रोहमें जिन क्षत्रियोंने उनका साथ न दिया उनसे है। जिस ब्राह्मण-जातिके इन्द्रभूति आदि गण
उनका विरोध करा दिया। इसका फल यह हुआ धरोंको जाति-सम्पन्न और कुल-सम्पन्न जैन आगमों
कि, अग्निकुली, ब्रह्मकुली आदि क्षत्रिय राजपूत' में बताया गया है, उन्हीं में भगवान महावीरके
जैसे चमत्कारिक नामको धारण कर अपने ही प्रसंगमें ब्राह्मणों को धिग्जाति-नीची जाति वाले
वंशके भाइयोंसे घृणा करने लगे। उस घृणाका बताना एक समस्या है। जैनधर्म और बौद्धधर्मके साथ ब्राह्मणोंका
.. शिकार कई ज्ञात वा जाटवंश वालोंको भी विरोध पहिले तो सिद्धांत-भेदसे हुआ था, पर वह
होना पड़ा।
* मथुराके प्रसिद्ध ऐतिहासिक कङ्काली टीलेसे प्राप्त योगपट्टोंमें भगवान महावीरकी गर्भ-परिवर्तनकी घटनासे अंकित एक यागपट्ट मिला है । यह आजकल लखनऊ म्यूज़ियममें मौजूद है। उसकी रचना ऐतिहासिक लोग दोहज़ार वर्ष पूर्वको बताते हैं ।
पं० विश्वेश्वरनाथ रेऊने अपने 'भारतके प्राचीन राजवंश' नामक ऐतिहासिक ग्रन्थमें इस घटना पर अच्छा प्रकाश डाला है और वह 'परमारवंशकी उत्पत्ति के रूप में इस प्रकार है:
"परमारवंश की उत्पत्ति राजा शिवप्रसाद (सितारेहिन्द) अपने इतिहास-तिमिर-नाशक'के प्रथम भागमै लिखते हैं कि 'जब विधर्मियोंका अत्याचार बहुत बढ़गया तब ब्राह्मणोंने अबु'दगिरि (आबू) पर यज्ञ किया और मन्त्रबल से अग्निकुण्ड में से क्षत्रियोंके चार नये वंश उत्पन्न कियेपरमार, सोलको, चौहान और पडिहार ।' अबुल फजलने अपनी आईने अकबरी में लिखा है कि 'जब नास्तिकोंका उपद्रव बहुत बढ़ गया तब आबू पहाड़ पर ब्राह्मणोंने अपने अग्निकुण्डसे परमार, सोलंकी, चौहान, और पडिहार नामके चार बैश उत्पन्न किये। पद्मगुप्त ने अपने नवसाहसांकचरित्रके ग्यारहवें सर्गमें परमारोंकी उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार किया है: