Book Title: Anekant 1940 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 56
________________ २५८ ] है वहभी प्रायः लेखकों की कृपाका फल जान पड़ता है । इनके अलावा 'धवला' टीकाके अप्रकाशित भागमें भी कुछ गाथाएं पंचसंग्रहकी उपलब्ध होती हैं । जिनका पता मुख्तार श्री जुगलकिशोरजीकी धवला-विषयक नोटबुक से चला, और जिनमें से दो गाथाएं यहां नमूने के तौरपर उद्घृत की जाती है : बेयण कसाय उव्विय मारयति समुग्धाओ । तेजाहारो छट्टो सत्तमओ केवली च ॥ - प्राकृत पंच सं० १, १९६ वेयणकसाय वेउब्वियश्रो मरणंतिय समुग्धादो, तेजाहारो छट्टो सत्तमओ केवली तु ॥ अनेकान्त [ पौष, वीर निर्वाण सं० २४६६ ग्रन्थ बनाया है । परन्तु प्रस्तुत 'प्राकृत पंचसंग्रह ' की जो प्रति मेरे पास है, उसमें कर्ता का कोई नाम नहीं है । इधर 'दि० जैन ग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ नामकी पुस्तकमें वीरसेनाचार्य के ग्रन्थों में 'पंचसंग्रह' का कोई नाम नहीं है, और न अभी तक कहीं किसी ग्रन्थमें इस प्रकारका उल्लेखही उपलब्ध होता है, जिससे इस ग्रन्थको वीरसेनाचार्यकी कृति माना जा सके । मालूम होता है। बाबा दुलीचन्दजीने, जिनकी सूची के आधार पर उक्त बृहत् सूची तैयार हुई अपनी सूची में. जनश्रुति आदि के आधार पर ऐसा लिखदिया है। उस सूचीमें और भी बहुत से ग्रन्थ तथा ग्रन्थकर्ताओंके विषय में गल्ती हुई है, जिसे फिर किसीसमय प्रकट करने का प्रयत्न किया जायगा । इसके सिवाय आचार्य श्रमितगतिने वि० सं० २०७३ में जो अपना संस्कृत पंचसंग्रह बनाया है और जो प्राय: इसीके आधारपर बनाया गया है, उसमें भी पंचसंग्रहके नामके सिवाय श्राचार्य वीरसेनका कोई जिकर नहीं है । अतः इस प्राकृत पंचसंग्रह कर्ता आचार्यधीरसेन मालूम नहीं होते । यदि वीरसेन इसके कर्ता होते तो धवला टीकामें पंचसंग्रहकी जो गाथायें 'उक्तंच' रूपसे दीगई हैं। उनमें से किसी में भी कोई विशेष पाठ-भेद न होता पंच- संग्रहकी १८४वीं गाथाका धवला में पूर्वार्ध तो मिलता है परन्तु उत्तरार्ध नहीं मिलता, जिससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यदि धवलाकी तरह पंचसंग्रह ग्रन्थ के कर्ता भी आचार्य वीरसेन ही होते तो यह संभव नहीं था कि वे अपने एक ग्रंथ में जिस पद्यको जिस रूपमें लिखते उसे अपने दूसरे ग्रंथ में 'उक्तंच' रूपसे देकर भी इतना अधिक बदल - धव० आरा प्र० पृ० १९५ गाणावरण चउकं दंसणतिग मंतरायगे पंच । ता होति सघाई सम्म संजलण खोकसायाय ॥ - प्राकृत पंच सं०, ४ ९६, पृ० ३५ गाणावरणचउकं दंसणतिग मंतरायगा पंच ताहति देशघादी सम्मं संजलय गोकसायाय ॥ -धवला० आरा प्र० पृ० ३८० इस सब तुलना पर से स्पष्ट है कि आचार्य वीरसेनके सामने ‘पंच संग्रह' जरूर था, इसीसे उन्होंने उसकी उक्त गाथाओं को अपने ग्रन्थों में उद्धृत किया है । आचार्य वीरसेनने अपनी 'धवला' टीका शक सं० ७३८ (विक्रम सं० ८७३) में पूर्ण की है । अत: यह निश्चित है कि पंचसंग्रह इससे पहलेका बना हुआ है । पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने 'जैन सिद्धान्त भास्कर, के ५ वें भागकी चतुर्थ किरणमें 'दि० जैन ग्रन्थोंकी बृहत्सूची' नामका एक लेख प्रकट किया था, उसमें 'सिद्धान्त ग्रंथ' उपशीर्षक के नीचे आचार्य वीरसेन के ग्रंथोंमें 'पंच संग्रह' का भी नाम दिया गया है, जिससे मालूम होता है कि आचार्य वीरसेनने पंचसंग्रह नामका भी कोई

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