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वर्ष ३, किरणः].
....उस दिन
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जैसे कुछ हुआ ही, नहीं १ . था ! वहींसे घूमकर बोला-'जा रहा हूँ-अब !!
अपने स्थानसे हटा ही नहीं !! -और हाथ जोड़ लिए! ... * *
हलवाहकका जैसे आशा-स्वप्न भागा जा रहा दोनों बैठे ! दरिद्रता द्वारा सलभ रुखेसो हो ! हाथ-जोड़े, जब तक धन्यकुमार दृष्टिसे प्रोमल किन्तु प्रेम-पूर्ण भोजनके लिये ! दोनों खा रहे
न होगया, खड़ा रहा। थे-मौन ! विचार-धाराएँ शतलजकी भाँति वेग
फिर........ ? वती हो बह रहीं थीं । विपरीत, एक-दसरीसे। निराशा, अन्यमनस्क लिए आगया. अपने काम
पर! ___ हलवाहक सोच रह! था-भाजका दिन धन्य है ! एक महा-पुरुषके साथ भोजन करनेका ।
टिख ! टिख !!........ सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है !' .
बैल बढ़े कि-'ठक् !' अटक गया—कुछ ! और उधर- 'मैं अपराधी हूँ ! उसके धनको मजबूत-हार्थोने मिट्टी हटाकर देखा-धनसे भरा मैंने देख लिया, भूल की न ?... अभी उसे पता हुआ
हुआ-कढ़ाह ! नहीं है ! पता होने पर "....! बस, खा-पीकर चल
___दरिद्र-श्रमीकी आँखें चौंधियाने लगीं--इतना देना ही ठीक है-अब ! फिर देखा जाएगा
धन ?... कलाका शिक्षण...!"
__ सोचने लगा--'यह उसी महा-भाग्यके चमहलवाहक चाहता—'जिन्दगी-भर इसी तरह,
त्कारका द्रव्य है ! मेरा क्या है- इसमें ?... खाते रहे ! वियोग न आए ! और धन्यकुमार
अगर मेरा होता तो..... पूर्वज जोतते आए, सोचता—'कब खाना खत्म हो, कब छुट्टी मिले !'
मैंने जबसे होश-सम्हाला जोता--कभी एक पैसा
नहीं निकला ! आज इतना-धन !"न, मेरा इस भोजन हो चुकने पर प्रसन्नता-भरे स्वरमें हलवाहक बोला-'आपने मेरी प्रार्थनाका आदर
___ पर कोई अधिकार नहीं, उसी का है ! उसे ही दे किया ! अब मैं भी कला सिखाने के लिए उद्यत हूँ ! १
देना मेरा कर्तव्य !, .."आइए!"
..और वह भागा, बे-तहासा,उसे लौटाने के धन्यकुमार पर घोर-संकट ! क्या करे अब ? ' घबराकर बोला- 'बात यह है, मुझे अब जल्दी है। पहुँचना भी तो है ! फिर कभी सीख लंगा !' मन, आशंकामें उलझा हुआ था, न ? भय भी
और चलने लगा अपने पथ पर ! हलवाहक था अपराधका ! यदि पंख होते तो वह कहाँ-कारहस्यसे अनभिज्ञ ! निर्निमेष देखता हुआ, बोला- कहाँ पहुँचा होता ! तो भी उसने गतिमें सामर्थ्याऐसा क्यों ?
नुसार वृद्धि की थी ! मुड़-मुड़ कर देखता जाता-- धन्यकुमार दश-बारह क़दम आगे जा चुका 'कहीं आ तो नहीं रहा !'
लिए!