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वर्ष ३, किरण ३]
... ... ................जैनधर्मकी विशेषता ....... .
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उठाया गया कि युद्ध में मरने वालोंको स्वर्ग प्राप्त होता यह एक ज़रूरी धर्म सिद्धान्त होगया, पतिके साथ जल है, होते २ यही रूढ़ि प्रचलित होकर धर्म सिद्धान्त बन- मरनेवाली ऐसी स्त्रियोंकी कबर ( समाधि ) भी पजी गई है और मनुस्मृति जैसे हिन्दूधर्म ग्रन्थमें यहाँतक जाने लगी परन्तु जैनधर्म किसी तरह भी इस कृत्यको लिख दिया गया है कि युद्ध में मरनेवालोंके लिये मरण धर्म नहीं मान सकता है, किन्तु बिल्कुल ही अमानुषिक संस्कारोंकी भी ज़रूरत नहीं, उनकी तो वैसे ही शुभगति' और राक्षसी कृत्य ठहराकर महा पाप ही बताता है । हो जाती है । परन्तु जैनधर्म ऐसी उल्टी बातको हरगिज़ चाहे सारा भारत इस कृत्यकी बड़ाई गाता हो परन्तु नहीं मान सकता है, युद्ध महा-कषायसे ही होनेके जैनधर्म तो इसकी बड़ी भारी निंदा ही करता है । कारण और दूसरोंको मारते हुए ही मरने के कारण इस ही प्रकार किसी समय विशेषरूपसे यद्ध आदिमें युद्ध करते हुए मरनेवाला तो अपने इस कृत्यसे किसी लगजाने के कारण लोगोंको पूजन भजन श्रादिका समय प्रकार भी ऐसा पुण्य प्राप्त नहीं कर सकता है जिससे न मिलनेसे उस समय के लिये पजन भजन आदिका उसको अवश्य ही स्वर्गकी प्राप्ति हो, किन्तु महा हिंसाके यह कार्य कुछ ऐसे ही लोगोंको सौंप दिया गया था जो भाव होने के कारण उसको तो पापका ही बंध होगा और शास्त्रोंके ही पठन पाठनमें और पूजापाठ में ही अधिक, दुर्गतिको ही प्राप्त होगा । हाँ, यह ठीक है कि संसारमें लगे रहते थे और ब्राह्मण कहलाते थे या कहलाने वह वीर समझा जायगा और यशको ज़रूर प्राप्त होगा। लगे थे । होते होते लोग इस विषयमें शिथिलाचारी
इस ही प्रकार किसी समय एक एक पुरुषकी होगये और आगेको भी पूजा पाठ श्रादिका कार्य उन अनेक स्त्रियाँ होनेके कारण इस भारत भूमिमें स्त्रियाँ ही लोगोंके जिम्मे होगया। पूजन-पाठ, जप-तप और अपने चारित्रमें अत्यन्त शंकित मानी जाने लगी थीं। ध्यान आदि धार्मिक सब ही अनुष्ठान लोंगोंकी तरफ़से 'स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्यभाग्यं देवो न जानाति कुतो इन ही ब्राह्मणों के द्वारा होकर पुण्यफल इनका उन मनुष्यः' स्त्री चरित्रकी बुराईमें ऐसे २ कथनोंसे सब ही लोगोंको मिलना माना जाने लगा जिनसे अपनी फीस शास्त्र भरे पड़े है । उस ही समय स्रियाँ पैरकी जूतीसे लेकर ये ब्राह्मण लोग यह अंनष्ठान करें। यही रूढी भी हीन मानी जाने लगी थीं । तब पुरुषके मरने पर अबतक जारी है और धर्मका सिद्धान्त बनगई है, परन्तु उसकी स्त्री खुली दुराचारिणी होकर अपने पति के नामको जैनधर्म किसी तरह भी ऐसा सिद्धान्त मानने को तय्यार बट्टा लगावे इस डरसे पुरुषोंने अपनी ज़बरदस्तीसे नहीं हो सकता है । वह तो पाप पुण्य सब अपने ही स्त्रियोंको अपने मृतक पतिकै साथ जल मरनेका महा भावों और परिणामों द्वारा मानता है। मैं खाऊँगा तो भयानक रिवाज जारी किया था और यह आन्दोलन मेरा पेट भरेगा दूसरा खायगा तो दूसरेका, यह हर्गिज़ उठाया गया था कि जो स्त्री अपने पति के साथ जल नहीं हो सकता है कि खाय कोई ओर पेट भरे दूसरेका, मरेगी वह अवश्य स्वर्ग जावेगी और इस पुण्यसे पूजा पाठ करै कोई और उसका पुण्य मिले दूसरेको । अपने पतिको भी चाहे वह नरक ही जानेवाला हो अपने ऐसी मिथ्या बातें जैनधर्म किसी तरह भी नहीं मान साथ स्वर्ग ले जायगी। फल इस आन्दोलनका यह सकता है। हुआ कि धड़ाधड़ स्त्रियां जीती जल मरने लगी और हिन्दुओंमें ब्राह्मणों द्वारा सब ही धार्मिक अनुष्ठान