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बहुत दूर निकल गया !--भया-कुल- चित्त धन्यकुमार ! विश्वास जम गया कि 'अब आएगा नहीं
गया है, उसे ले आइए !' • 'मेरा धन ?'
लेकिन 'विश्वास' का धरातल बालुकी दीवार की तरह अस्थायी निकला । कानोंने सुना, आँखों ने देखा -- वह पुकारता हुआ, भागता हुआ आ रहा है ! सच, चला रहा है इसी ओर !
धन्यकुमारका होश ! सारा शरीर बेंतकी भाँति काँप उठा ! रुक गया जहाँ का वहाँ ! वह आया !
• धन्यकुमार ने समझा जैसे उसका अन्त समय है, काल सामने खड़ा है !
पर इसके मुँह पर रौद्रता क्यों नहीं ? वही बातें कर रहे हैं !"
दीन-भाव, वही श्रद्धा-दृष्टि !!
'आप लौट चलिए ! आपका धन वहाँ रह
ال:
'हाँ ! आपका ही...!'
'मेरे पास तो शरीर पर इन वस्त्रोंके अतिरिक्त और कुछ भी न था !"
'ठीक है ! लेकिन वह कढ़ाह - जो खेतकी मिट्टी के नीचे दबा निकला है -- आपके भाग्य चमकारका ही प्रसाद है !'
[पौष, वीर- निर्वाण सं० २४६६
तो आज ही न निकलकर पूर्वजोंके सामने नि लता, या मैं इतने दिनोंसे इसे जोत रहा हूँ ! ... पहिले भी निकल सकता ! मगर आप विश्वास कीजिए कभी एक कौड़ी नहीं निकली ! धन आपका है, आप उसके मालिक ! मेरे लिए मिट्टी ! चलिये !'
'मैंने कहा न, धन मेरा नहीं है ! मैं उसके विषयमें कुछ नहीं जानता !"
'न जानिए ! पर उसे हटा लीजिए ! मेरे ऊपर से व्यर्थका भार उठे !'
'लेकिन वह मेरा हो तब न ?”
'धन आपका, और फिर आपका ! आप कैसी
'वह मेरा नहीं है -- भाई ! तुम्हारे खेतमें जो कुछ हैं, सब तुम्हारा हूँ !'
'यह नहीं मान सकता -- मैं ! अगर मेरा होता,
अनैकान्त
'भाई ! धन तुम्हारा है, मेरा नहीं !"
मेरा ? जिसने दरिद्रताकी गोद में बैठकर जिन्दगी बिताई ! इतनी उम्र हुई – इतना धन स्वप्नमें भी नहीं देखा ! दरिद्रताका उपहास कर रहे हैं -- .
आप !
बात, धन्यकुमारके मनमें शूल-सी चभी ! बोला -- 'अच्छा, मेरा ही सही ! लेकिन मैं अब उसे तुम्हें देता हूँ ! प्रेम मानते हो, तो स्वीकार करो -- उसे !'
हलबाहकके अधरोंमें स्पन्दन हुआ, कुछ शब्द -- कण्ठसे बाहिर श्रनेके लिए उद्यत हुए ! पर वह बोल न स्वका !
चप रह गया !!!