Book Title: Anekant 1940 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 11
________________ ३, किरण : ३] लादिश्रुत-परिचय के साथ 'श्रीपाल - सम्पादिता' भी बतलाया हैश्रीवीरप्रभुभाषितार्थघटना निर्लोडितान्यागम स्थताके दोष के कारण जो कुछ इस टीकामें दुरुक्त रूपसे रचा गया हो वह सब आगम धनी विद्वानोंके द्वारा परिशोधन किये जानेके योग्य है और जो निर्दोष है वही ग्रहण किया जाना चाहिये । यथा - * श्रत्युक्तं किमिद्दास्त्यनुक्तमथवा किं वा दुक्तारुिदकं, सर्वज्ञोदित सूनृत प्रवचने प्रस्पष्टष्टाक्षरे । तत्सूत्रार्थविवेचने कतिपयैरेवाचरे मांटशां उक्तानुक्तदुरुक्त चिन्तनपरा टीकेति कः संभवः ॥ ४१ ॥ तत्पूर्वापरशोधनेन शनकैर्यन्मादृशां टीकनं, सा टीकेत्यनुगृह्यतां बुधजनैरेषा हि नः पद्धतिः । afafeve दुरुक्तमत्र 'रचितं छाद्मस्थ्यदोषोदयात्. तर सर्व परिशोध्य मागमधनैर्ग्राह्य च यन्निस्तुषं ॥४२॥ इन पद्यो में श्राए हुए 'मादृश' (हम जैसोंकी) और 'नः' 'हमारी) शब्दोंसे यह बात साफ़तौरसे उद्घोषित होती है कि यह प्रशस्ति जयधवला टीकाके उत्तरभागके रचयिता स्वयं श्रीजिनसेनाचार्यकी बनाई हुई है और इसके द्वारा उन्होंने श्रात्म-परिचय दिया है, जिससे विज्ञ पाठक श्राचार्य महोदयकी शारीरिक, मानसिक और बुद्धयादि विषयक स्थितिका बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं । प्रशस्तिमें टीकाका नाम कहीं 'वीरसेनीया' और कहीं 'जयधवला' दिया है । साथ ही, अन्तिम पद्यसे पहले निम्न श्राशीर्वादात्मक पद्यमें उसे अन्य विशेषणों * इस पथसे पूर्वके तीन पद्य इस प्रकार हैं:ग्रन्थच्छायेति यत्किंचिदत्युक्तमिह पद्धतौ । क्षन्तुमर्हथ तत्पूज्या दोषं ह्यर्थी न पश्यति ||३८|| गाथासूत्राणि सूत्राणि चूर्णिसूत्रं तु वार्तिकं । टीका श्री वीरसेनीया शेषाः पद्धतिपंजिकाः ||३९|| ते सूत्रसूत्र तद्वृत्तिविवृती वृत्तिपद्धती । कृत्स्नाकृत्स्नश्रुतव्याख्ये ते टीकापंजिके स्मृते ||४० २१३.. न्याया श्रीजिनसेनसन्मुनिवरैरादर्शितार्थं स्थितिः । टीका श्रीजयचिन्हितोरुधला सूत्रार्थसंयोतिनी, स्थेयादारविचन्द्रमुज्वल तपः श्रीपालसंपादिता ॥४३॥ इस परसे श्रीयुत पं० नाथूराम जी प्रेमीने अपनी 'विद्वद्रस्नमाला' में यह निष्कर्ष निकाला है कि— “वास्तवमें कषायप्राभृतकी जो वीरसेन और जिनसेनस्वामीकृत ६० हजार श्लोक - प्रमाण टीका है, उस का नाम तो 'वीरसेनीया' है; और इस वीरसेनीया टीकासहित जो कषायप्राभृतके मूल सूत्र और चूर्णिसूत्र, वार्तिक वगैरह अन्य श्राचार्योंकी टीकाएँ हैं, उन सबके संग्रहको 'जयधवला' टीका कहते हैं । यह संग्रह 'श्रीपाल' नामके किसी आचार्यने किया है, इसीलिये जयधवलाको 'श्रीपाल सम्पादिता' विशेषण दिया है।" प्रेमीजीका यह निष्कर्ष ठीक नहीं है, और उसके निकाले जाने की वजह यही मालूम होती है कि उस समय आपके सामने पूरी प्रशस्ति नहीं थी । आपको आगे पीछे के कुछ ही पद्य उपलब्ध हुए थे, जिन्हें श्रापने अपनी पुस्तक में उद्धृत किया है । जान पड़ता है आप उन्हीं पद्योंको उस समय पूरी प्रशस्ति समझ गये हैं और उन्हीं के आधारपर शायद आपको यह भी खयाल होगया है कि यह प्रशस्ति 'श्रीपाल ' आचार्यकी बनाई है । परन्तु बात ऐसी नहीं है । यह प्रशस्ति श्रीपाल श्राचार्यकी बनाई हुई नहीं है, जैसा कि ऊपरके अवतरणोंमें 'माशां' आदि शब्दोंसे प्रकट है । और न श्रीपाल के उक्त संग्रह का नाम ही 'जयधवला' टीका है। बल्कि वीरसेन और जिनसेनकी इस ६० हजार श्लोक संख्यावाली टीकाका असली नाम ही 'जयधवला' है, ऐसा खुद जिनसेन ने प्रशस्तिके उक्त पथ नं० १ व ११ में स्पष्ट रूपसे

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