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[पौष, वीर-निर्वाण सं०२४६६
अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रतका पालन किया था। अतिसुन्द- यः कृशोऽपि शरीरेण न कृशोभूत तपोगुणैः । राकार और अतिचतुर न होने पर भी सरस्वती श्राप न कृशत्वं हि शारीरं गुणैरेव कृशः कृशः ॥ ३२ ॥ पर मुग्ध थी और उसने अनन्ये-शरण होकर उस समय यो नाग्रहीकापलिकान्नाप्यचिन्तयदंजसा । श्रापका ही श्राश्रय लिया था। साथ ही, श्रासन्न भव्य तथाप्यध्यात्म विद्याब्धेः परं पारमशिश्रियत् ॥३३॥ होने की वजहसे, मुक्तिलक्ष्मीने स्वयंवराकी सरह उत्सुक ज्ञानाराधनया यस्य गतः कालो निरन्तरं । होकर आपके कण्ठमें श्रुतमाला डाली थी । इस अलं- ततो ज्ञानमयं पिण्डं यमाहुस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ३४ ॥ कुत भावको प्रशस्तिके नीचे लिखे पद्योंमें प्रकट किया जिनसेनने जयधवला टीका के उत्तर-भागको अपने गया है
गुरु (वीरसेन ) की आज्ञासे लिखा था। गुरुने उत्तरयस्मिन्नासन्नभव्यत्वान्मुक्तिलक्ष्मीः समुत्सुका। - भागका बहुत कुछ वक्तव्य प्रकाशित किया था। उसे स्वयंवरितुकामेव श्रौति मालामयूयुअत् ॥ २८ ॥ देखकर ही अल्प वक्तव्यरूप यह उत्तरार्ध अापने पर्ण येनानुचरितं कास्वाद ब्रह्मवतमखंडितम् । किया है, जो प्रायः प्राकृत भाषामें है और कहीं कहीं स्वर्ववरविधानेन चित्रमूडा सरस्वती ॥ २६॥ संस्कृत मिश्र भाषाको लिये हुए हैं; ऐसा आप स्वयं यो नातिसुन्दराकारो न चातिचतुरो मुनिः। प्रशस्ति के निम्न पद्यों द्वारा सूचित करते हैं-- तथाप्यनभ्यशरणाऽयं सरस्वत्युपा चरत् ॥३०॥ तेनेदमनतिप्रौढमतिना गुरुशासनात् ।।
"जिनसेन स्वभावसे ही बुद्धिमान, शान्त और विनयी लिखितं विशंदेरेभिरक्षरः पुण्य शासनम् ॥३५॥ . थे, और इन ( बुद्धि, शांति, विनय ) गुणोंके द्वारा गुरुणार्धेऽग्रिमे भूरिवक्तव्ये संप्रकाशिते ।
आपने अनेक प्राचार्योका आराधन किया था-अर्थात् तन्निरीच्याल्पवक्तव्यः पश्चार्धस्तेन परितः ॥ ३६॥ इन गुणों के कारण कितने ही प्राचार्य उस समय श्राप प्रायः प्राकृतभारत्या क्वचित्संस्कृतमिश्रया । पर प्रसन्न थे। आप शरीरसे यद्यपि पतले-दुबले थे, तो मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽयं ग्रंथविस्तरः ॥३७॥ भी तपोगुण के अनुष्ठानमें कभी नहीं करते थे । शरीरसे कुछ आगे चलकर आपने यह प्रकट करते हुए कृश होने पर भी आप गुणोंमें कृश नहीं थे। आपने कि 'सर्वशोदित इस सत्य प्रवचन में, जोकि प्रस्पष्ट तथा कपिल सिद्धान्तोंको-सांख्यतत्त्वोंको-ग्रहण नहीं किया मृष्ट (पवित्र ) अक्षरोंको लिये हुए हैं, अत्युक्त अनुक्तऔर न उनका भले प्रकार चिंतन ही किया,तो भी आप दुरुक्तादिक-जैसी कोई बात नहीं है, अपनी टीकाके अध्यात्म-विद्या-समुद्रके उत्कृष्ट पारको पहुंच गये थे। सम्बन्धमें यह भी बतलाया है कि थोड़े ही अक्षरों द्वारा श्रापका समय निरन्तर ज्ञानाराधनमें ही व्यतीत हुआ सूत्रार्थका विवेचन करनेमें हम जैसोंकी टीका उक्त, करता था, इसीसे तत्त्वदर्शीजन श्रापको ज्ञानमय पिण्ड अनुक्त और दुरुक्तका चिन्तन करने वाली (वार्तिकरूप) कहते थे। इन सब बातोंके द्योतक पद्य, प्रशस्ति में, इस टीका नहीं हो सकती। इसलिये पूर्वापर-शोधन के साथ प्रकार हैं
हम जैसीका जो शनैः शनैः (शनकैस् ) टीकन है, धीः शमो विनयश्चेति यस्य नैसर्गिकाः गुणाः। उसीको बुधजन टीकारूपसे ग्रहण करें, यही हमारी सूरीनाराधयंति स्म गुणैराराध्यते न कः ॥ ३१॥ पद्धति है । साथ ही, यह भी प्रकट किया है कि छद्म