Book Title: Anekant 1940 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 14
________________ २१६ बहाने से मानो एक बेढंगा अलि मलिन चिन्ह बना दिया है और भरत, सगर आदि चक्रवर्ती राजानोंके यशोंका तारा के प्रकाशके सदृश संहार करके जगसृष्टा गुर्जर-नरेन्द्र के महान् यशको फैलने और प्रका शित होने का अवसर दिया है । इनको आदि लेकर और भी सम्पूर्ण राजानोंसे बढ़कर क्षीरसमुद्रके फेन ( भाग ) की तरह गुर्जर - नरेन्द्रकी शुभ्रकीर्ति, इस लोक में, चन्द्र-तारा की स्थिति पर्यन्त स्थिर रहे । यद्यपि इस वर्णनमें कवित्व भी शामिल है, तो भी इससे इतना ज़रूर पाया जाता है कि महाराज अमोघ वर्ष, जिनका दूसरा नाम नृप तुङ्ग था, एक बहुत बड़े प्रतापी, यशस्वी, उदार, गुणी, गुणक्ष, धर्मात्मा, परोपकारी और जैनधर्मके एक प्रधान आश्रयदाता सम्राट * इस आशीर्वादके बाद निम्न पथ द्वारा जैनशासनका जयघोष किया गया है । और उसे अजयमाहात्म्य, विशासित कुशासन और मुक्तिलचणैकशासन जैसे विशेषणोंके साथ स्मरण किया है । इस पद्यके बाद ही प्रशस्ति में वीरसेन और जिनसेनादि-सम्बन्धी वे सब पद्य दिये हैं जिनका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है: अनेकान्त जयत्यजय्य महात्म्मं विशासित कुशासनम् । शासनं जैनमुद्भासि मुक्तिलक्ष्म्यैक शासनम् ॥ १६ [पौष, वीर - निर्वाण सं० २४६६ + होगये हैं । आपके द्वारा तत्कालीन जैन समाज और स्वयं जिनसेनाचार्य बहुत कुछ उपकृत हुए हैं और आपके उदार गुणों तथा यशकी धाकने श्राचार्य महोदय के हृदय में अच्छा घर बना लिया था । इसीसे प्रशस्तिमें गुरु वीरसेनसे भी पहले आपके गुणोंका कीर्तन किया गया है। जान पड़ता है, आपके विशेष सहयोग और आपके राज्यकी महती सुविधाओंके कारण ही 'जयधवला' का निर्माण हो सका है, और इसीसे प्रशस्तिके ८ वें पद्यमें, जो ऊपर उद्धृत किया जा चुका है, इस टीकाका 'अमोघवर्ष राजेन्द्र प्राज्यराज्य-गुणोदया', यह भी एक विशेषण दिया गया है । इस प्रकार यह धवल- जयधवल के रचयिता श्रीवीरसेन जिनसेन श्राचार्योंका, उनकी कृतियों तथा समकालीन राजादिकों सहित, धवल जयधवल के आधार पर संक्षिप्त परिचय है । वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०७ - १ - १६४० + गणितसारसंग्रहके कर्ता महावीर थाचार्यने भी श्रापकी प्रशंसा में कुछ पद्य लिखे हैं और कितने ही शिलालेखों श्रादिमें आपके गुणोंका परिचय पाया जाता है । सुधार - संसूचन (१) 'अनेकान्त' की गत दूसरी किरणके पृ० १८६ की तीसरी पंक्तिके प्रारम्भ में जो "लिखकर उसे " शब्द छपे हैं उनके स्थान पर पाठक जन “ अपने प्रास्ताविक शब्दों के साथ” ये शब्द बना लेवें। और पृष्ठ १८७ की प्रथम पंक्तिके शुरु में तथा पृ० १६६ के दूसरे कालमकी १७वीं पंक्तिके अन्तमें इनवेर्टडकामाज़ ("...") लगा देवें, जिससे गोत्र विचार सम्बन्धी उद्धृत मूल लेखको दूसरे विद्वानका समझने में कोई भ्रम न रहे । (२) 'अनेकान्त' की गत दूसरी किरण के पृ० १६८ पर जो फुटनोट छपा है उसके सम्बन्ध में जयपुरसे श्री मांगीलालजी कानूंगा यह सूचित करते हैं कि- "जैनमतानुसार बृहस्पति "जैनमत प्रचारक" न हुए हों लेकिन हिन्दुधर्मकी पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड अध्याय १३ मुद्रित नवलकिशोर प्रेस लखनऊ में बृहस्पतिको जैनमत प्रचारक माना है । —लेखकका लेख हिन्दू मतकी पुस्तकोंके आधार पर है इसलिये 'समझकी ग़लती या भूतका परिणाम नहीं है ।" अतः उक्त फुटनोटमें "समझकी" के स्थान पर "हिन्दु पुराणकार की " बना लेवें । - सम्पादक

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