Book Title: Anekant 1940 01 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 8
________________ .. अनेकान्त [पौष, वीर-निर्वाण सं०२४६६ पुस्तकानां चिरंतानां गुरुवमिह कुर्वता। प्रशिष्य तथा आर्यनन्दीके शिष्य थे और उन्होंने अपने ये नातिशायिताः पूर्वे सर्वे पुस्तकशिष्यकाः ॥२४॥ कुल, गण तथा सन्तान (शिष्यसमूह) को अपने यस्तपोदीप्तकिरणैभन्यांभोजानि बोधयन् । व्यद्योतिष्ट मुनीनेनः पंचस्तूपान्वयाम्बरे ॥२५॥ गुणोंसे उज्वल किया था। प्रशिष्यश्चन्द्रसेनस्य यः शिष्योप्यार्यनंदिनां । ___ यह परिचय कुछ अतिशयालंकारसे युक्त होनेपर कुलं गणं च संतानं स्वगुणैरुदजिज्वलत् ॥२६॥ __ भी बहुत कुछ तथ्यपूर्ण जान, पड़ता है और इसका इन पद्योंमें बतलाया है कि-'श्री वीरसेनाचार्य कितना ही अनुभव वीरसेनाचार्यकी धवला और जयभट्टारक पदकी महाख्यातिको प्राप्त थे और साक्षात् धवला ऐसी दोनों टीकाओंको देखनेसे हो सकता है । केवलीकी तरह अधिकांश विद्याोंके पारदृष्टा थे । उनकी इस परिचय में भी वीरसेनको पंचस्तपान्वयी चन्द्रसेनके अशेष विषयोंसे परिपूर्ण तथा प्राणिसम्पत्तिको-प्राणियों प्रशिष्य तथा आर्यनन्दीके शिष्य सूचित किया है । साथ में उत्कर्षको प्राप्त मानवसंततिको अथवा प्राणिसमूहको- ही, एलाचार्यका गुरुरूपसे कोई उल्लेख ही नहीं किया, संतुष्ट करनेवाली भारती(वाणी)सिद्धान्तागमके षट्खण्डों जिसका यह स्पष्ट अर्थ जान पड़ता है कि वीरसेनाचार्यमें उसी प्रकारसे निर्बाध प्रवर्तती थी जिस प्रकार कि भरत की गुरुपरम्परा उक्त चन्द्रसेनाचार्यसे ही प्रारंभ होती है, चक्रवर्तीकी अाशाभरतक्षेत्रके छहोखण्डोंमें अखण्डितरूप एलाचार्यसे नहीं-एलाचार्यसे उन्हें प्रायः षट्खण्डासे वर्तती थी अर्थात् जिस तरह भरत चक्रीकी अाशा गमविषयक ज्ञानकी ही प्राप्ति हुई थी, जयधवलंके श्राछहों खण्डोंमें प्रमाण मानी जाती थी उसी तरह वीरसेना- धारभूत कषायप्राभूत के ज्ञानकी प्राप्ति नहीं । चार्यकी वाणीभी षटखण्डागमके विषयमें प्रमाण मानी वीरसेनाचार्य जयधवलाको पूरी नहीं कर सके, वे जाती थी। उनकी सर्वपदार्थों में प्रवेश करनेवाली स्वाभाविक उसका पूवार्ध ही–जो कि प्रायः २० हज़ार श्लोक बुद्धिको देखकरबुद्धिमान लोग सर्वज्ञके विषयमें शंकारहति परिमाण है-लिख पाये थे कि उनका स्वर्गवास होगया, होगये थे । वे प्रकर्षरूपसे स्फुरायमान ज्ञानकी किरणोंके और इसलिये उत्तरार्धको-जो कि ४० हज़ार श्लोकप्रसारको लिये हुए थे और इसलिये विद्वान् जन उन्हें परिमाण है--उनके शिष्य वीरसेनने लिखकर समाप्त श्रुत केवली तथा प्रज्ञाश्रमणोंमें उत्तम कहते थे। उनकी किया है । समाप्तिका समय शक संवत् ७५६ फाल्गुन बुद्धि प्रसिद्ध और सिद्ध ऐसे सिद्धान्त-समुद्रके जलसे शुक्ला दशमीके पूर्वान्हका है,जबकि नन्दीश्वर महोत्सवके धुलकर शुद्ध हुई थी, और इसलिये वे तीव्र बुद्धि के अवसर पर अर्थात् अष्टान्हिका पर्वमें-महान् पूजाधारक प्रत्येक बुद्धोंके साथ स्पर्धा करते थे। उन्होंने विधान प्रवर्त रहा था, और गुर्जरराजा अमोघवर्षका प्राचीन पुस्तकोंके गौरवको बढ़ाया था और वे अपने राज्य था । उन्हींके राज्यके वाटग्राम नगर में यह सूत्रार्थपूर्वके सभी पुस्तकशिष्यों-पुस्तकपाठियों अथवा पुस्तकों- दर्शिनी 'जयधवला' ट का, जिसे 'वीरसेनीया' नाम भी द्वारा ज्ञान प्राप्त करनेवालोंमें बढ़े चढ़े थे। वे मुनिराज- दिया गया है, उक्त समय पर समाप्त की गई है, जैसा रूपी सूर्य अपने तपकी देदीप्यमान किरणोंसे भव्यजनरूपी कि प्रशस्तिके निम्न पद्योंसे प्रकट है- . कमलोंको विकसित करते हुए पंचस्तूपान्वयरूपी अाकाश- इति श्रीवीरसेनीया टीका सूत्रार्थदर्शिनी । में सविशेष रूपसे उद्योतको प्राप्त हुए थे । वे चन्द्रसेनके वाटग्रामपुरे श्रीमद्गुर्जरार्यानुपालिते ॥६॥Page Navigation
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