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४५९ अमृतसागर तथा प्रतापसागर तरंग अथसन्निपात कापैरकोल क्षएालि० सहतसिरीशो अथवा घृतसिरीशो हरतालसरीशो माथांकी भेजीसिरीसौ मुरदाकीहर गंधनें लीयां जीको लोहाजाय सोत्रिदोष को जाणिजे ४ प्रथरु धिरकाघरंगा जाबाकाउपवलि• रुधिरघणोंजायनादिस्त्री दुर्बलहोजाय समहोय मूर्छाहोय मदहोय तिसघणीलांगे दाह होय मलाप होय शरीरपीलोहोय तंद्राहोय वर वायका और भीरोगहोय ५ अथप्रदरकामसाध्यलक्षणलि० जोनिमाहि सूंनिरंतर रुधिरचालबोही करै रहेन हीं परति सहोय दाहहोय अरसरीरमैंजुर होय शरीरडूबलोहोय वेनें साध्यजाणिजे ६ अथशुद्धर्त्तनामस्त्रीधर्म कोलक्षएालि• जींस्त्रीकीजो निकोरुधिरमहीनांकी महीनें सुसाकारूधिरसिरीशोनीसरैची रुधिरमेंदाह नहीं पररुधिरनीसरतांपीडनहीं अरपांच ५ रा त्रितांईनीसरे परयसोंनी सरैनहीं थोडोभानीसरैनहीं नीशु स्त्रीधर्मपणजाणिजे ७ अथस्त्रीधर्मपणोंसोला १६ दि नताईरहेछ प्रथप्रदररोगकोजत नलि• संचरलूल जीरो महलौठी कमलगट्टा यांकोकाटोसहतनांषिलेतौ बायकोपेर कोरोगइरिहोय १ अथवा महलौठीक २।। मिश्रीटंक २ यांनैमि हीवांटिचावलांकापाणी सूंलेतौ पित्तकापैरकोरोगजाय रथ वा रसोतटंक २)। चौलाईकीजडकोरसटका तीमेंसहतमिला यदिन ७ पीवैतौसर्वप्रकारको पैरकोरोगजाय ३ अथवा आसा पालां कीचकलकोकाटोकरितींमेंदूधनांषिपीवैतौ घणों भी पेरको रोगजाय ४ अथवा मामकीजडनेंचावलांकापाणीवांटिवेंनदिन ३. पीवैतोपेर कोरोगजाय ५ अथवा कठूबरकीवकलकोरसती में
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