Book Title: Agam Sutra Satik 39 Mahanishith ChhedSutra 6
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan
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महानिशीथ - छेदसूत्रम् - ५/-/६९५
सरन्ने परम-सेव्वाणं सेव्वयरे ताइं च तत्थ णं गच्छे अन्नयरे ठाणे कत्थइ विराहिजंति से णं गच्छे समग्ग-पणासए उम्मग्ग-देसए जे णं गच्छे सम्मग-पणासगे उम्मग्ग- देसए से णं निच्छयओ चेव अनाराहगे एएणं अड्डेणं गोयमा एवं बुच्चइ जहा णं संखादीयाणं गच्छ मेरा ठाणंतराणं जे णं गच्छे एगमन्नयरट्ठाणं अइकमेज्जा से णं एगंतेनं चेव आणाविराहगे ।
भू. (६९६ ) से णं भयवं केवइयं कालं जाव गच्छस्स णं मेरा पन्नविया केवतियं कालं जाव णं गच्छस्स मेरा नाइक्कमेयव्वा गोयमा जाव णं महायसे महासत्ते महानुभगे दुप्पसहे णं अनगारे ताव णं गच्छमेरा पन्नविया जाव णं महायसे महासत्ते महानुभागे दुप्पसहे अनगारे ताव णं गच्छामेरा नाइक्कमेयव्वा ।
मू. (६९७) से भयवं कयरेहि णं लिगेहि वइक्कमियमेरं आसादना-बहुलं उम्मग्ग-पट्ठियं गच्छं वियाणेजा गोयमा जं असंठवियं सच्छंदचारिं अमुनियसमयसब्भावं लिगोवजीविं पीढग फलहगपडिबद्धं अफासु- बाहिर- पानग- परिभोई अमुणिय-सत्तमंडली - धम्मं सव्वावस्सग-कालाइक्कमयारिं आवस्सग हाणिकरं ऊणाइरित्ता- वस्सगपवत्तं गणणा पमाण ऊणाइरित्तरयहरण-पत्तदंडगमुहनंतगाइ उवगरणधारिं गुरुवगरण- परिभोई उत्तरगणविराहगं गिहत्थछंदाणुवित्ताई सम्मानपवित्तं पुढवि दगागणि-वाऊ- वणफती - बीय-काय - तस-पान- बि-ति चउ-पंचेंदियाणं कारणे वा अकारणे वा असती पमाय-दोसओ संघट्टणादीसुं अदिट्ठ-दोसं आरंभ-परिग्गह- पवित्तं अदिन्नालोयणं विगहासीलं अकालयारिं अविहि-संगहिओवगहिय- अपरिक्खिय पव्वा वि उवट्ठाविय-असिक्खावियदस विह-विनय-सामायारिं लिगिणं इड्डि-रस- साया- गारव-जाइयमय- चउक्कसाय-ममकार-अहंकारकलि- कलह-झंझा- डमर - रोद्दट्टज्झाणोवगयं अठाविय- बहु-मयहरं दे देहि त्ति निच्छोडि-यकरं बहुदिवस-कय- लोयं विज्जा-मंत-तंत-जोग - जागाहिज्ज नेक्कबद्धकक्खं अवूढ-मूल जोग-निओगं दुक्कालाईआलंबणमासज्ज अकप्प कीयगाइपरिभुंजणसीलं जंकिं चि रोगायं कमालंबिय तिगिच्छाहिणंदणसीलं जं किं चि रोगायकमासीय दिय-तुयट्टण-सीलं कुसील संभासणाणु- वित्तिकरणसीलं अगीयत्थसुह-विणिग्गय - अनेग-दोस-पायड्डि-वयणाणुट्ठाण - सीलं असि धणुखग्ग-गंडिव - कोंत - चक्काइपहरणपरिग्गहिया-हिंडणसीलं साहुवेसुज्झिय अन्नवेस पवित्त- कयाहिंडणसीलं एवं जाव णं अद्भुट्ठाओ पयकोडिओ ताव णं गोयमा असंठवियं चेव गच्छं वाय-रेज्जा ।
पू. (६९८) तहा अन्ने इमे बहुप्पगारे लिंगे गच्छस्स णं गोयमा समासओ पन्नविनंति एते य णं पयरिसेणं गुरुगुणे विन्नेए तं जहा- गुरु ताव सव्व- जग-जीव -पान-भूय सत्ताणं माया भवइ किं पुन जंगच्छ से णं सीस-गणाणं एगंतेनं हियं मियं पत्थंइह-परलोगसुहावहं आगमानुसारेणं हिओवएसं पयाइ नो णं वसणाहिभूए अहो णं गहग्घत्थे उम्मत्ते अत्थि एइ वा जहा णं मम इमेणं हिओवएसपयाणेणं अमुगट्ठ-लाभं भवेज्जानो णं गोयमा गुरुसीसगाणं निस्साए संसारमुत्तरेज्जानो णं परकएहिं सुहसुहेहिं कस्सइ संबंध अत्थि ।
मू. (६९९)
मू. (७००)
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ता गोयमेत्थ एवं ठियम्मि जइ दढ - चरित्त गीयत्थे । गुरु-गुण- कलिए य गुरू भणेज्ज असई इमं वयणं ॥ मिणगोणसंगुलीए गणेहिं वा दंत-चक्कलाई से 1 तं तमेव करेजा कज्जंतु तमेव जाणंति ॥
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