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वीरत्थश्री
है । अथवा अर्हत उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करते हुए उनके शिष्य धर्मदेशना आदि के सन्दर्भ में अपने वचन कौशल से पद्यात्मक रूप में जो भाषण करते हैं, वह प्रसंशक है।
प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना तीर्थंकरों के शिष्यों द्वारा होने की जब मान्यता है, तो यह स्थिति प्रत्येक-बुद्धों के साथ कैसे घटित होगी ? क्योंकि वे तो किसी के द्वारा दीक्षित नहीं होते ? वे किसी के शिष्य भी नहीं होते ? इसका समाधान इस प्रकार किया गया है कि प्रवाजक या प्रव्रज्या देने वाले आचार्य की दृष्टि से प्रत्येक- - बुद्ध किसी के शिष्य नहीं होते, परन्तु तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट धर्म-शासन की प्रतिपन्नता या तदनुशासन- सम्प्रक्तता की अपेक्षा से अथवा उनके शासन के अन्तर्वती' होने से वे औपचारिकतया तीर्थकुर के शिष्य कहे भी जा सकते हैं : अतः प्रत्येक बुद्धों द्वारा प्रकीर्णक रचना की संगतता व्याहत नहीं होती ।
हालाँकि आज अनेकों प्रकीर्णक प्राप्त होते हैं परन्तु वलभी वाचना में निम्न दस प्रन्थों को ही प्रकीर्णक मानकर आगम ग्रन्थों का सा सम्मान प्रदान किया गया है, उनके नाम हैं :--
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(१) चउसरण ( चतुःशरण) (२) आउरपचचकखाण (आतुर प्रत्याख्यान) (३) महापच्चक्खाण (महाप्रत्याख्यान ) ( ४ ) भतपरिणा (भक्त परिज्ञा) (५) तंडुलवेयालिय ( तंदुल वैचारिक) (६) संचारम ( संस्थारक) (७) गच्छायार (गच्छाचार) (८) गणिविज्जा ( गणिविद्या) (९) देविदत्यय ( देवेन्द्रस्तव) (१०) मरणसमाहि ( मरणसमाधि ) * । १. इमद्भगवदुपदिष्टं श्रुतमनुसृत्य भगवतः श्रमणा विरचयन्ति तत्सर्व प्रकीर्णकमुच्यते । अथवा श्रुतमनुसरन्तां यदात्मतां वचनकोदालेन धर्मदेशादिप्रत्यपद्धतितया भाषन्ते स सर्वप्रकीर्णकम् । --अभिधान राजेन्द्र, पंचग-भाग, पू० ३ २. प्रत्येक शिष्यभावी विरुद्धने तदेतदसमीचीनम् यतः प्रत्राजकाचार्यमेवाधिकृत्य शिष्यभावो निष्पिते, न तु तीर्य रोपदिष्टासनप्रतिपन्नत्वे - नापि, ततो न कविचदीपः । - अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग - १०४ ३. अप्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास |
-- नेमिचन्द्र शास्त्री, पृष्ठ- १९७