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वीरत्थभ
इस प्रकार नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र में नो प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है ।
यद्यपि आगमों की श्रृंखला में प्रकीर्णकों का स्थान द्वितीयक है किन्तु यदि हम भाषागत प्राचीनता और आध्यात्मपरक विषयवस्तु की दृष्टि से विचार करें तो कुछ प्रकीर्णक आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन प्रतीत होते हैं । प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित, तंदुल वैचारिक, देवेन्द्रस्तव, चन्द्रवेयक आदि कुछ ऐसे प्रकीर्णक हैं जो उत्तराध्ययन एवं दशकालिक जैसे प्राचीन सबके भागों से की ह
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वीरस्तव
वीरस्तव प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख हमें विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ १४वीं शताब्दी) में उपलब्ध होता है । इस ग्रन्थ में प्रकीर्ण करें के रूप में देवेन्द्रस्तत्र, तंदुल वैचारिक, मरणसमाधि, महाप्रत्याख्यान, आतुरस्यायन संस्तारक, चन्द्रवेध्यक, भक्तपरिज्ञा, चतुःशरण, वीरस्तव, गणिविद्या, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, संग्रहणी एवं गच्छाचार इन चौदह ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है ।
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विधिमार्गप्रपा के पूर्ववर्ती ग्रन्थों नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र में वीरस्तव का उल्लेख नहीं पाया जाता है। इस प्रकार वीरस्तव का सर्वप्रथम संकेत विधिमात्रा में ही है। विधिमाप्रपा में बागम ग्रन्थों के अध्ययन की जो विधि प्रज्ञप्त की गयी है. का उल्लेख होना यह सिद्ध करता है कि वीरस्तव को एक प्रकीर्णक के रूप में मान्यता प्राप्त हो चुकी थी ।
उसमें वीरस्तव १४वीं शती में
रचना है । से बना है।
वीरस्तव प्राकृत भाषा में निवल एक पञ्चात्मक 'वीर लव' शब्द 'वीर' और 'स्तव' इन दो शब्दों के योग जिसका सामान्य अर्थ तीर्थङ्कर महावीर की स्तुति है । इस वीरस्तव ग्रन्थ की विषयवस्तु पर विचार करने के पूर्व हमें प्राचीनकाल से चली भा रही स्तुतिपरक रचनाओं की परम्परा के बारे में भी विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है ।
१. ऋषिभाषित
एक अध्ययन प्रो० सागरमल जैन, प्राकृत भारती संस्थान,
जयपुर ।
२. विधिमा ० जिनविजय पुष्ठ ५७-५८ ।
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