Book Title: Agam 33 Prakirnak 10 Viratthao Sutra
Author(s): Punyavijay, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 30
________________ भूमिका तीर्थकर आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। हिन्दू धर्म में स्तुति की परम्परा बहुत प्राचीन समय से चली आ रही है। अन्य सभी मतावलम्बियों के समान उसने भी अपने आराध्य की स्तुति एक हजार आठ नामों से की है। उदाहरण के लिए विष्णसहस्रनाम, शिवसहस्रनाम, गणेशसहस्रनाम, अम्बिकासहस्त्रनाम, गोपालसहस्रनाम आदि स्तुतियाँ प्रचलन में है। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र कृत ललित विस्तरा जो कि नमोस्थणं शक्रस्तव को टीका है। में तीर्थकर के लिए प्रयुक्त विभिन्न विशेषणों की विस्तृत व्याख्या की गई है । इन मूल ग्रन्थों के अतिरिक्त पं० आशाधर ने वि० सं० १३०० के लगभग जिनसहस्र नाम से एक ग्रन्थ की रचना की. जिसमें उन्होंने १००० नामों से जिनेश्वर देव की स्तुति प्रस्तुत की है। इन १००८ नामों में वीरत्यओ के २६ नामों में से अनेक नामों का उल्लेख प्राप्त हो जाता है । दश शतकों में विभाजित इस ग्रंथ का पहला घातक जिननाम शतक है |१] इसमें भव' कानन (जन्म-मरण) सम्बन्धी अनेक महाकष्टों के कारण भूत विषम व्यसन रूपी कर्म रूपी शत्रुओं को जिसने जीत लिया है उसे 'जिन' कहा गया है । १२] वीतराग' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि राग के विनष्ट हो जाने से आप वीतरा है। [३] द्वितीय सर्वज शतक में सर्वज्ञ' शब्द की व्याख्या कुछ इस तरह की है . १. महावीर चौरलमोमासा-पू. ! | २. जिन सहस्रनाम-प. प्राशावर-प्रस्तायना पु० ॥३-१४ ३. प्रणम्य 'भूवनालोक महावीर गिणोत्तमम्"-लदिनविस्तरा-१ । ४. नमोत्याग ..... तित्ययराण जिगाणं... 'गबण्ण सम्बदरिमीणं...... ललिनविरतरा--वन्दना सूप पृ. २१।। ५, जिन-गर्वन-यज्ञाह-तीर्थकन्नाथ-योगिनाम् । निर्वाण-ब्राह्म-वृद्धान्तकृतां चाप्टोनरैः शनैः ।। ( जिनसहननान ११५) ६. कर्मारानीन् जयति सायं गति नि जिन. (जिनमहननाम-टीका प० ५८) ७. 'बीतो विनष्टो रागो यस्येति नीनराग" जिनसहननाम पृv ६१

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