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श्रीरस्तुति
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( ६ ) आपने घोर उपसर्ग, परिषद् और कषाय के कारण भूत प्राणियों के समस्त कर्म रूपी शत्रुओं का नाश कर दिया है, इस कारण हे नाथ! आप 'अरिहंत' (मरि+हंत शत्रु का हनन करने वाले) हो ।
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(७) हे श्रेष्ठ प्रभु ! आप वन्दन, स्तुति, नमस्कार, पूजा और सरकार के योग्य तथा सिद्धि को प्राप्त करने में समर्थ हो, इसलिए आप 'अरिहंत' (अरिह योग्य या सामर्थ्यवान ) हो ।
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(4) हे जिनदेव ! आप देव, मनुष्य एवं असुरों के श्रेष्ठ स्वामियों अर्थात् इन्द्रों के समूह से पूजित तथा बीर एवं मन अर्थात् सकल्पविकल्प से रहित हो, इसलिए 'अरिहंत' (अहं> पूजायाम् - पूजित) हो ।
( ३ अरहंत )
(९) आप 'र' अर्थात् रथ ( गाड़ी ) प्रकारान्तर से समस्त परिग्रह और रह्स अर्थात् पर्वत की गुफा के अंधकार के समन अज्ञान इन दोनों से 'अ' अर्थात् रहित हो इस कारण आप अरहंत हो ।
(१०) आपने अपने त्यागमार्ग एवं श्रेष्ठज्ञान (केवलज्ञान ) से मृत्यु को भी अवनत अर्थात् परास्त कर दिया है और निज स्वरूप को प्राप्त कर लिया है, इसी कारण आप अरहत हो ।