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घोरस्तुति
(१५ त्रिभुवनगुरु) (३०) त्रिभुवन के संजी पंचेन्द्रिय जीव शब्दों से जिन अर्थों को ग्रहण
करते हैं. उनमें सद्धर्म का विनियोजन करने के कारण आप 'तीनों लोकों के गुरु' हो ।
(१६ सर्व) (३१) भारी दुःखों में विलप्त होते हुए संसार के प्रत्येक सूक्ष्म एवं स्थूल
प्राणी अर्थात् सभी प्राणियों के लिए हितकारी होने के कारण आप 'सम्पूर्ण' हो।
(१७ त्रिभुवनश्रेष्ठ) (३२) बल, बीर्य, सत्त्व, सौभाग्य, रूप, विज्ञान, शान - इन सभी में
श्रेष्ठ तथा उत्तम पद अर्थात् तीर्थकर पद पर वास अर्थात् मधिकार करने से 'विभुवन-श्रेष्ठ' हो।
(१८ भगवत) (३३) हे नाथ ! प्रतिपूर्ण रूप, ऐश्वर्य, धर्म, कांति, पुरुषापं और
यश के कारण आपकी 'भग' संज्ञा अविकल है। इसलिए आप
'भगवन्त' हो। (३४) हे जिनेश्वर ! इहलौकिक एवं पारलौफिक सात प्रकार के भय
को विनष्ट कर देने से अथया उसका परित्याग कर देने के कारण ही आप 'भयवन्त' हैं। [ज्ञातव्य है कि यहाँ भगवंत के प्राकृत रूप भयवन्त की भय है 'वान्त' जिसका, ऐसी व्याख्या की गयी है]