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सम्पादक प्रो० सागरमल जैन
प्रागम संस्थान प्रथमाला : १२
वीरत्थओपइण्णयं
( वीरस्तव-प्रकीर्णक) ( मुनि पुष्यविजय द्वारा संपादित मूलपाठ )
अनुवादक डॉ० सुभाष कोठारी
प्रभारी एवं शोध अधिकारी आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान
उदयपुर ( राज)
भूमिका प्रो. सागरमल जैन डॉ. सुभाष कोठारी
आगम अहिंसा - समता एवं प्राकृत संस्थान
उदयपुर
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प्रकाशकीय
अर्द्धमागधी जैन आगम-साहित्य भारतीय संचारों और महिल की अमल्य निधि है। दुर्भाग्य से इसके अनेक ग्रन्थों के अनुवाद उपलब्ध नहीं होने के कारण जनसाधारण उनसे अपरिचित हैं। आगम ग्रन्थों में अनेक प्रकीर्णक प्राचीन और अध्यात्म प्रधान होते हुए भी अप्राप्त से रहे हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि पूज्य मुनि श्री पुण्यविजय जी द्वारा सम्पादित इन प्रकीर्णक ग्रंथों के मूल पाठ का प्रकाशन महावीर विद्यालय, बम्बई से हमा, फिर भी अनुवाद के अभाव में ये जन मावारण के लिए वे ग्राह्य नहीं थे । इसी कारण जैम विद्या के विद्वानों की समन्वय समिति ने अननूदित आगम ग्रंथों और आगमिक व्याख्याओं के अनुवाद सहित प्रकाशन को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया और इसी सन्दर्भ में प्रकीर्णकों के अनुवाद का कार्य आगम संस्थान, उदयपुर को दिया गया । आगम संस्थान इन प्रकीर्णकों में से देवेन्द्रस्तव आदि ७ प्रकीर्णकों का अनुवाद एवं व्याख्या सहित प्रकाशन कर चुका है।
हमें प्रसन्नता है कि संस्थान के प्रभारी एवं शोध अधिकारी डॉ. सुभाष कोठारी ने वीरस्ता प्रकीर्णक का अनुवाद सम्पूर्ण किया। प्रस्तुत ग्रंथ की सुविस्तृत एवं विचारपूर्ण भमिका संस्थान के मानद निदेशक प्रो० सागरमल जैन एवं डॉ. सुभाष कोठारी ने लिखकर ग्रन्थ को पूर्णता प्रदान की है इस हेतु हम इनके कृतज्ञ हैं।
प्रकाशन की इस वेला में हम संस्थान के मार्गदर्शक श्रो० कमल चन्द जी सोगानी, मन्त्री श्री वीरेन्द्र सिंह जी लोढ़ा एवं सह निर्देशिका डॉ० सुषमा सिंघवी के भी आभारी हैं, जो संस्थान के विकास में हर सम्भव सहयोग एवं मार्गदर्शन दे रहे हैं। डॉ० सुरेश सिसोदिया भी संस्थान की प्रकीर्णक अनुबाद योजना में संलग्न हैं। इस हेतु हम उनके भी आगारी हैं।
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प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में श्री पारेलाल जी भाडा असीबाग ने दस हजार रु. का अनुदान दिया, अत: उनके प्रति कृतज्ञता जापित करते हैं। सन्थ के सुन्दर एवं सत्वर मुद्रण के लिए हम डिवाइन प्रिंटस के भी अ"भारी हैं।
गुसाममल चोरडिया
अध्यक्ष
सरवारमल कांकरिया
मानद् महामन्त्री
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विषयानुक्रम
गाथा क्रमांक
पुष्ठ कमांक
विषय वीरस्तव भूमिका बीर जिनेन्द्र के छन्नीस नाम अम्ह अरिहंत अरनंत
६८ ९.१२. .
.
देव
११
१५-१६
२२
जिन वीर परमकारुणिक सर्वज्ञ सर्वदर्शी पारंगत विकालविज्ञ नाथ वीतराग केवलि त्रिभुवनगुरु सर्व त्रिभुवनश्रेष्ठ भगवान् तीर्थकर शकेन्द्राभिवन्दित जिनेन्द्र वर्धमान हरि
२३-२७ २८-२९
३३-३४
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विषय
कमलासन
बुद्ध
परिशिष्ट
१. वीरस्तव प्रकीर्णक की गाथानुक्रमणिका
२. सहायक ग्रन्थ सूची
( ६ )
गाथा क्रमांक
૧
४२
पृष्ठ क्रमांक
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भूमिका
प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थ का एक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। हिन्दुओं के लिए वेद, बौद्धों के लिए त्रिपिटक, पारसियों के लिए अवेस्ता, ईसाइयों के लिए बाइबिल और मुसलमानों के लिए कुरान का जो स्थान और महत्त्व है, वही स्थान और महत्त्व जनों के लिए आमम साहित्य का है। यद्यपि जैन परम्परा में आगमन तो वेदों के ममान अपौरुषेय माने गये हैं और न ही बाइबिल और कुरान के समान किसी पैगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का सन्देश है.. अपितु वे उन अर्हतों एवं ऋषियों की वाणी का संकलन हैं, जिन्होने साधना और अपनी आध्यात्मिक विशुद्धि के द्वारा सत्य का प्रकाया पाया था। यद्यपि जैन आगम साहित्य में अंग सूत्रों का प्रवक्ता तीर्थंकरों को माना जाता है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि तीर्थकर भी मात्र अर्थ के प्रवक्ता हैं, दूसरे शब्दों में वे चिन्तन या विचार प्रस्तुत करते हैं, जिन्हें शब्द रूप देकर ग्रन्थ का निर्माण गण घर अथवा अन्य प्रबुद्ध आचार्य या स्थविर करते हैं'।
जैन-परम्परा हिन्दु-परम्परा के समान शब्द पर उतना बल नहीं देती है। वह शब्दों को विचार की अभिव्यक्ति का मात्र एक माध्यम मानती है। उसकी दष्टि में शब्द नहीं, अर्थ (तात्पर्य) ही प्रधान है। बाब्दों पर अधिक बल न देने के कारण ही जैन परम्परा में आगम ग्रन्थों में यथाकाल भाषिक परिवर्तन होते रहे और वे वेदों : समान शब्द रूप में अक्षण नहीं बने रह मके । यही कारण · कि आगे चलकर जैन आगम साहित्य-अद्धमागधी आगम साहित्य और यौरसेनी आगम-साहित्य ऐसी दो शाखाओं में विभक्त हो गया। यद्यपि इन में अद्धमागधी आगम-साहित्य न केवल प्राचीन है, अपितु वह महावीर की मूलवाणी के निकट भी है। शौरसेनी आगम-साहित्य का विकास इन्हो अर्द्धमागधी आगम-साहित्य के प्राचीन स्तर के माम अन्यों के आधार पर हमा है। अत. अर्द्धमागधी आगम-साहित्य शौरसेनी आगम-साहित्य का आधार एष उसकी अपेक्षा प्राचीन भी है।
१. "असं भासद अरदा सुतं गंयंति गणहरा"-आवश्यक नियुक्ति, गाथा ९२ ।
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मं
वीरत्नो
यद्यपि यत् अर्द्धमागधी - आगम- साहित्य महावीर के काल से लेकर वीर निर्वाण संवत् ९८० या ९९३ की वलभी की वाचना तक लगभग एक हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में अनेक बार संकलित और सम्पादित होता रहा है। अतः इस अवधि में उसमें कुछ संशोधन, परिवर्तन और परिवर्धन भी हुआ है और उसका कुछ अंश कालकवलित भी हो गया है।
प्राचीन काल में यह अर्द्धमागधी आगम साहित्य अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ऐसे दो विभागों में विभाजित किया जाता था । अंगप्रविष्ट में ग्यारह अंग आगमों और बारहवें दृष्टिवाद को समाहित किया जाता था। जबकि अंगबाह्य में इसके अतिरिक्त वे सभी आगम ग्रन्थ समाहित किये जाते थे, जो श्रुतकेवली एवं पूवंवर स्थविरों की रचनाएं मानी जाती थीं । पुनः इस अंगबाह्य आगम - साहित्य की नन्दीसूत्र में आवश्यक और आवश्यक व्यक्तिरिक्त ऐसे दो भागों में विभाजित किया गया है । आवश्यक व्यतिरिक्त के भी पुनः कालिक और उत्कालिक ऐसे दो विभाग किये गये हैं । नन्दीसूत्र का यह वर्गीकरण निम्नानुसार है -
अंगप्रविष्ट |
आचारांग
सुत्रकृतग
स्थानांग
समवायांग
व्याख्याप्रज्ञप्ति
ज्ञाताधर्मकथांग
उपासक दशांग
अन्तकृतदशांग
श्रुत (आगम )
↓
१
अंगबाह्य
चन्दना
प्रतिक्रमण
कायोत्सर्ग
आवश्यक
I
सामायिक चतुविशतिस्तव
आवश्यक व्यतिरिक्त
1
१. नदीसूत्र - सं० मुनि मधुकर सूत्र ७६ ७९.८१ ।
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भूमिका
अनुत्तरी पातिकदशांग प्रत्याख्यान
प्रश्नव्याकरण
विपाकसूत्र दृष्टिवाद
कालिक
उत्तराध्ययन
-- दशाश्रुतस्कन्ध
कल्प
-- व्यवहार - निशोथ --महानिशीथ - ऋषिभाषित - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति --द्वीपसागरप्रज्ञप्ति
- चन्द्रप्रज्ञप्ति
-- मूल्लिका विमानप्रविभक्ति
- मल्लिका विमानप्रविभक्ति
-- अंगचूलिका
-वग्गचूलिका - विवाहचूलिका
-- अरुणोपपात
- वरुणोपपात
-- गरुड़ोपपात -धरणोपपात
- वैश्रमणोपपात
- बेलन्धरोपपात
- देवेन्द्रोपपात
-उत्थानश्रुत
- समुत्थानश्रुत नागपरिशापनिका
उत्कालिक
-- दशकालिक कल्पिककल्पिक
--चुल्लकल्पश्रुत
- मला कल्पन - औपपातिक
-- राजप्रश्नीय - जीवाभिगम
--प्रज्ञापना
--महाप्रज्ञापना
--प्रमादाप्रमाद
--नन्दी
-- अनुयोगद्वार
- देवेन्द्रस्तव - तंदुलचारिक - चन्द्रवैध्यक -सूर्यप्रज्ञप्ति - पौरुषीमण्डल
-- मण्डलप्रवेश
-- विद्याचरण विनिश्चय
-गणिविद्या
ध्यानविभक्ति
-- मरणविभक्ति
-- आत्मविशोधि - वीतरागश्रुत
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वीरथी
-निरयावलका
-संलेखणाश्रत -कल्पिका
-विहारकल्प ---कल्पावतंसिका
---चरणविधि --पुष्पिका
–मासुरप्रत्याख्यान --पुष्पचूलिका
-महाप्रत्याख्यान --वृष्णिदशा
इस प्रकार हम देखते हैं कि नन्दीसूत्र में प्रकीर्णकों का उल्लेख अंगबाह्म, आवश्यक व्यतिरिक्त, कालिक एवं उत्कालिक आगमों में हुआ है। पाक्षिक सूत्र में भी आगमों के वर्गीकरण की यही बोली अपनायी गयी है। इसके अतिरिक्त आगमों के वर्गीकरण की एक प्राचीन शैली हमें यापनीय परम्पग के शौरसेनी आगम ' मलाचार' में भी मिलती है। मलाचार आगमों को चार भागों में वर्गीकृत करता है(१) तीर्थंकर-कथित (२) प्रत्येक-बुद्ध मथित (३) श्रुतकेवली -कथित (४) पूर्वधर कथित । पुनः मुलाचारी इन आगमिक ग्रन्धों का कालिक और उकालिक के रूप म वगीकरण किया गया है। इस प्रकार अद्धमागधी और शौरसेनी दोनों ही आगम परम्पराए' कालिक एवं उस्कालिक सूत्रों के रूप में प्रकीर्णकों का उल्लेख करती हैं। प्रकीर्णक
वर्तमान में आगमों के अंग, आंग, छंद, मनसूत्र, प्रकीर्णक आदि विभाग किये जाते हैं । यह विभागीकरण हमें सर्वप्रथम विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ-१४वीं शताब्दी) में प्राप्त होता है । सामान्यतया प्रकीर्णक का भर्थ विविध विषयों पर सकलित ग्रन्थ ही किया जाता है। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है कि तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट वृत का अनुमरण करके श्रम प्रकीर्णकों की रचना करते थे। परम्परानुसार यह भी मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण एक-एक प्रकीर्णकों की रचना करते थे ।
जैन पारिभाषिक दृष्टि से प्रकीर्णक उन ग्रन्थों को कहा जाता है जो तीर्थंकरों के शिष्य उद्घत्ता श्रमणों द्वारा आध्यात्म-सम्बद्ध
१. मुलावार -भारतीय ज्ञान, गाना, २७५ २. विधिमार्गप्रया-पृष्ठ ५५ ।
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११
भूमिका विविध विषयों पर रचे जाते हैं।
यह भी मान्यता है कि श्रुत का अनुसरण करके वचन कौशल से धर्मदेशना आदि के प्रसंग से श्रमणों द्वारा कथित जो रचनाएँ हैं, वे भी प्रकीर्णक कहलाती हैं। प्रकोणकों की संख्या--
समवायांग सूत्र में "चोरासोई पपणगं सहस्साई पण्णता" कहकर भगवान ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के चौरासी हजार प्रकीर्णकों का उल्लेख किया गया है।
दूसरे तीर्थकर से तेइसवें तीर्थङ्कर तक के शिष्यों द्वारा संख्येय सहस्र प्रकीर्णक रचे गये। महावीर के तीर्थ में चौदह हजार साधुओं का उल्लेख प्राप्त होता है। अतः उनके तीर्थ में प्रकीर्णकों की संख्या मौदह हजार मानी गयी है।
नन्दीसूत्र के एक प्रसंग में ऐसा भी उल्लेख है कि तीर्थंकरों के मोत्पातिकी, बैनयिकी, कामिकी तथा पारिणामिकी- इन चार प्रकार की बुद्धि से सम्पन्न जितने सहस्र शिष्य होते हैं, उनके उतने ही सहन प्रकीर्णक होते हैं अथवा उनके शासन में जितने प्रत्येक बुद्ध होते हैं, उतने ही प्रकीर्णक-ग्रन्थ होते हैं।
नन्दीसूत्र के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है कि अहंत प्ररूपित श्रुत का अनुसरण करते हुए उनके शिष्य भी ग्रन्थ रचना करते हैं, उन्हें प्रकीर्णक कहा जाता १. आगम और त्रिपिटक : एक अनुदिन, पृष्ठ ४८४ । २. जैन मागम माहित्य : मनन और मीमासा, पाठ ३८८ । ३. सावायांग मूत्र, मृति मधुकर, ८४ वां समवाय । ४. एपमाश्याई चउरामीई पइगणग-सहस्साइ भगवी अरहओ सहसामि
यस्स आइतित्यय रस्स । तहा सन्निज्जाई पदण्णाग सहस्साई मजिजामगाणं जिणवराणं । चोद्दमपण्णगसहस्साणि भगवओ बदमाणसामिस्स । अहवा अस्स जनिया सीसा उत्तियाए वेणयाए कम्मिगार परिणामियाए चबिहाए बुद्धीए उववेया, तस्स तत्तियाई पइण्णगमहरसाई। पतंय बुद्धा वि तत्तिया चेव ।
-नन्दी सूब, ८१ ।
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१२
वीरत्थश्री
है । अथवा अर्हत उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करते हुए उनके शिष्य धर्मदेशना आदि के सन्दर्भ में अपने वचन कौशल से पद्यात्मक रूप में जो भाषण करते हैं, वह प्रसंशक है।
प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना तीर्थंकरों के शिष्यों द्वारा होने की जब मान्यता है, तो यह स्थिति प्रत्येक-बुद्धों के साथ कैसे घटित होगी ? क्योंकि वे तो किसी के द्वारा दीक्षित नहीं होते ? वे किसी के शिष्य भी नहीं होते ? इसका समाधान इस प्रकार किया गया है कि प्रवाजक या प्रव्रज्या देने वाले आचार्य की दृष्टि से प्रत्येक- - बुद्ध किसी के शिष्य नहीं होते, परन्तु तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट धर्म-शासन की प्रतिपन्नता या तदनुशासन- सम्प्रक्तता की अपेक्षा से अथवा उनके शासन के अन्तर्वती' होने से वे औपचारिकतया तीर्थकुर के शिष्य कहे भी जा सकते हैं : अतः प्रत्येक बुद्धों द्वारा प्रकीर्णक रचना की संगतता व्याहत नहीं होती ।
हालाँकि आज अनेकों प्रकीर्णक प्राप्त होते हैं परन्तु वलभी वाचना में निम्न दस प्रन्थों को ही प्रकीर्णक मानकर आगम ग्रन्थों का सा सम्मान प्रदान किया गया है, उनके नाम हैं :--
1
(१) चउसरण ( चतुःशरण) (२) आउरपचचकखाण (आतुर प्रत्याख्यान) (३) महापच्चक्खाण (महाप्रत्याख्यान ) ( ४ ) भतपरिणा (भक्त परिज्ञा) (५) तंडुलवेयालिय ( तंदुल वैचारिक) (६) संचारम ( संस्थारक) (७) गच्छायार (गच्छाचार) (८) गणिविज्जा ( गणिविद्या) (९) देविदत्यय ( देवेन्द्रस्तव) (१०) मरणसमाहि ( मरणसमाधि ) * । १. इमद्भगवदुपदिष्टं श्रुतमनुसृत्य भगवतः श्रमणा विरचयन्ति तत्सर्व प्रकीर्णकमुच्यते । अथवा श्रुतमनुसरन्तां यदात्मतां वचनकोदालेन धर्मदेशादिप्रत्यपद्धतितया भाषन्ते स सर्वप्रकीर्णकम् । --अभिधान राजेन्द्र, पंचग-भाग, पू० ३ २. प्रत्येक शिष्यभावी विरुद्धने तदेतदसमीचीनम् यतः प्रत्राजकाचार्यमेवाधिकृत्य शिष्यभावो निष्पिते, न तु तीर्य रोपदिष्टासनप्रतिपन्नत्वे - नापि, ततो न कविचदीपः । - अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग - १०४ ३. अप्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास |
-- नेमिचन्द्र शास्त्री, पृष्ठ- १९७
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भूमिका नन्दी एवं अनुयोगद्वार सूत्र जैन आगम ग्रन्थमाला ग्रंथाग--१ में दस प्रकीर्णकों के नाम इस प्रकार गिनाए हैं
(१) च उसरण (श्री वीरभद्राचार्य कृत) (२) आउरपच्चखाण (श्री वीरभद्राचार्य कृत) (३) भत्त परिपणा :४) संधारण (५) तंदुलवेयालिय (६) चंदावेज्मय (5) देविदत्थय (८) गणिविज्जा (९) महापच्चरखाण (१०) वीरत्यव' ।
वर्तमान में हालांकि मान्य प्रकीणंकों की संख्या दस ही है परन्तु उनके नाम में एकरूपता नहीं पायी जाती है। किन्हीं ग्रन्थों में मरणसमाधि एवं गच्छाचार के स्थान पर चन्द्रवेष्यक एवं वीरस्तव को गिना है तो निश्री प्रन्यों में देवेन्द्ररतबीसद को सम्मिलित कर दिया गया है, किन्तु मंस्तारक की परिगणना नहीं करके उसके स्थान पर गच्छाचार और मरण समाधि का उल्लेख कर दिया गया है।
इनके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक उपलब्ध होते हैं यथा--आतुरप्रत्याख्यान नाम से तीन प्रकीर्णक उपलब्ध हैं।
वर्तमान में यदि प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थों का संग्रह किया जाय तो निम्न बावीस नाम प्राप्त होते हैं
(१) चतुःशरण (२) आतुरप्रत्याख्यान (३) भक्तपरिशा (४) संस्थारक (५) तंदुलवैचारिक (६) चंद्रवेघ्यक (७) देवेन्द्रस्तक (८) गणिविद्या (९) महाप्रत्याख्यान (१०) वीरस्त (११। ऋषिभाषित (१२) अजीवकल्प (१३) गच्छाचार (१४) मरणसमाधि (१५) तित्योगालि (१६) आराधनापताका (१७) द्वीपसामर प्रज्ञप्ति (१८) ज्योतिषकरण्डक (१९) अंगविधा (२०) सिद्धप्रामृत (२१) सारावली (२२) जीवविभक्ति।
व-आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीला, पृष्ठ-४८६ स-जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, पुष्ट-३८८
द-देवेन्द्रस्ताव प्रवीणक-भूमिया, पृष्ठ-१२ १. पइश्णवसुताई, मुनि पुण्यविजय जी, प्रस्तावना, पृष्ठ-२० २. पहण्णयमुत्ताई, मुनि पुण्यत्रि जय जी, प्रस्तावना, पृष्ठ १९ ।
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चौरत्यओ __यहाँ एक बात विशेष रूप से द्रष्टव्य है कि मुनि पुण्यविजय जी द्वारा सम्पादिल एवं महावीर विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित, जो पइण्णयसुत्ताई भाग १ एवं भाग २ प्रकाशित हुए है, उनमें नाम और संख्या भिन्न रूप से प्राप्त होते हैं। मुनि पुण्यविजय जी ने अपनी प्रकीर्णक सूत्र भाग १ को प्रस्तावना में लिरहा है कि वर्तमान में यदि प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थों का संग्रह किया जाय लो बावीस नाम आता होते है जो उनका उन्होंने नामोल्लेख भी किया है। जबकि मल रूप में प्रकाशित इन ग्रन्थों में प्रथम खण्ड में बीस एवं द्वितीय खण्ड में बारह प्रकीर्णक एवं कूलक ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है। यह सभी प्रकीर्णक उन पूर्व उल्लेखित बाइस प्रकीर्णकों से भेद रखते हैं।
मुनि पुण्यविजय जी द्वारा सम्पादित पइण्णयसुत्ताई भाग १ एवं भाग २ में निम्न प्रकीणंकों का संग्रह है।
पाइपणयत्ता भाग १ :-- इसमें निम्न बीस प्रकीर्णक हैं--
(१) देवेन्द्रस्तव (२) तंदुलवैचारिक (३) चन्द्रवेध्यक (४) गणिविद्या (५) मरणसमाधि (६) आतुरप्रत्याख्यान (७) महाप्रत्याख्यान (८) प्रषिभाषित (९। द्वीपसागरप्रति (१०) संस्तारक (११) वीरस्तव (१२) चतुःशरण (१३) आतुरप्रत्याख्यान (१४) चतुःशरण (१५। भक्तपरिज्ञा (१६) आतुरप्रत्याख्यान (१७) गच्छाचार (१०) सारावली (१२) ज्योतिएकरण्इक (२०) तित्योगाली
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भूमिका
पइण्णपसमाई भाग २ :--.. ...
इसमें निम्न बारह प्रकीर्णक एवं कुलक ग्रन्थ हैं--- १ आराधनापनाका (पानीनाचार्य विरचित) २ आराधारायलाका (श्री वीरभद्राचार्य विरचित) ३. आराधनासार (पर्यन्त आराधना) ४. आराधना पत्रक श्री उद्योलनसूरी विरचित कुवलयमालाकहा
के अन्तर्गत) ५. आराधनाप्रकरण (श्री अभयदेवसूरी प्रणीत) ६. आराधना (जिनेश्वर श्रावका एवं सुलसा श्राविका ७. आराधना नन्दनमुनि द्वारा आराधित आराधना) 4. आराधना कुलक ९-१० मिथ्यादुष्कृतफुलक भाग १.२ ११ आलोयणाकुलक १२. अल्पविशुद्धि कुक
इस प्रकार इसमें २७ प्रकीर्णक और ५ कुलक प्रकाशित हैं। इनमें चतुकारण नामक २ प्रकीर्णक, आतुरप्रत्याभ्यान नाम से ३ प्रकीर्णक और आराधना के नाम से ७ प्रकीर्णक एवं एक कुलक है। यदि आराधना, चतुःशरण और आतुरप्रत्याख्यान को एक-एक माना जाय तो कूल १८ प्रकीर्णक होने हैं। इन २ भागों में अप्रकाशित-अंगविज्जा, अजीव कप्प, मिद्धपाहा एवं जिनविभत्ति ये चार जोड़ने पर प्रकीर्णकों की कुल संख्या २२ होती है।
इन प्रकीर्णकों के नामों में से नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र से उत्कालिक सत्रों के वर्ग में (1) देवेन्द्रस्तव (२) तंदूलवैचारिक (३) चन्द्रवेध्यक (४) गणिविद्या (५) मरण विभक्ति (६) मरणसमाधि (७) महाप्रत्याख्यान ये सात नाम पाये जाते हैं एवं कालिक सूत्रों के वर्ग में (१) ऋषिभाषित एवं (२) द्वीपसामरप्रज्ञप्ति ये दो नाम पाये जाते हैं ।
१. नन्दीसूत्र-पुनि मधुकर, पन्य ८०.८१
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१६
वीरत्थभ
इस प्रकार नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र में नो प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है ।
यद्यपि आगमों की श्रृंखला में प्रकीर्णकों का स्थान द्वितीयक है किन्तु यदि हम भाषागत प्राचीनता और आध्यात्मपरक विषयवस्तु की दृष्टि से विचार करें तो कुछ प्रकीर्णक आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन प्रतीत होते हैं । प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित, तंदुल वैचारिक, देवेन्द्रस्तव, चन्द्रवेयक आदि कुछ ऐसे प्रकीर्णक हैं जो उत्तराध्ययन एवं दशकालिक जैसे प्राचीन सबके भागों से की ह
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वीरस्तव
वीरस्तव प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख हमें विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ १४वीं शताब्दी) में उपलब्ध होता है । इस ग्रन्थ में प्रकीर्ण करें के रूप में देवेन्द्रस्तत्र, तंदुल वैचारिक, मरणसमाधि, महाप्रत्याख्यान, आतुरस्यायन संस्तारक, चन्द्रवेध्यक, भक्तपरिज्ञा, चतुःशरण, वीरस्तव, गणिविद्या, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, संग्रहणी एवं गच्छाचार इन चौदह ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है ।
મ
विधिमार्गप्रपा के पूर्ववर्ती ग्रन्थों नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र में वीरस्तव का उल्लेख नहीं पाया जाता है। इस प्रकार वीरस्तव का सर्वप्रथम संकेत विधिमात्रा में ही है। विधिमाप्रपा में बागम ग्रन्थों के अध्ययन की जो विधि प्रज्ञप्त की गयी है. का उल्लेख होना यह सिद्ध करता है कि वीरस्तव को एक प्रकीर्णक के रूप में मान्यता प्राप्त हो चुकी थी ।
उसमें वीरस्तव १४वीं शती में
रचना है । से बना है।
वीरस्तव प्राकृत भाषा में निवल एक पञ्चात्मक 'वीर लव' शब्द 'वीर' और 'स्तव' इन दो शब्दों के योग जिसका सामान्य अर्थ तीर्थङ्कर महावीर की स्तुति है । इस वीरस्तव ग्रन्थ की विषयवस्तु पर विचार करने के पूर्व हमें प्राचीनकाल से चली भा रही स्तुतिपरक रचनाओं की परम्परा के बारे में भी विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है ।
१. ऋषिभाषित
एक अध्ययन प्रो० सागरमल जैन, प्राकृत भारती संस्थान,
जयपुर ।
२. विधिमा ० जिनविजय पुष्ठ ५७-५८ ।
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भूमिका तति को परारा - माराय की स्तुति करने की यह परम्परा भारत में प्राचीन काल से ही रही है। भारतीय साहित्य की अमर निधि वेद मुख्यतः स्तुतिपरक ग्रन्थ ही हैं। वेदों के अतिरिक्त भी हिन्दू परम्परा में स्तुतिपरक साहित्य की रचना होती रही है। जहाँ तक श्रमण परम्पराओं का प्रश्न है वे स्वभावतः अनीश्वरवादी एवं ताकिक परम्पराएँ हैं। श्रमणधारा के प्राचीन अन्थों में हमें साधना या आत्मशोधन की प्रक्रिया पर ही अधिक बल मिलता है। उपासना या भक्ति तत्त्व उनके लिए प्रधान नहीं रहा । जैन धर्म भी श्रमण परम्परा का धर्म है, इसलिए उसकी मूलप्रकृति में भी स्तुति का अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं रहा है। जब जैन परम्परा में आराध्य के रूप में 'महावीर' को स्वीकार किया गया तो सबसे पहले उन्हीं की स्तुति लिखी गयी, जो आज भी सूत्रकृतांग सूत्र के छठे अध्याय "वीरत्युइ" के रूप में उपलब्ध होती है । सम्भवतः जैन परम्परा में स्तुतिपरक साहित्य का प्रारम्भ इसी 'वीरत्थर" से है। वस्तुतः इसे भी स्तुति केवल इसी आधार पर कहा जा सकता है कि इसमें महावीर के गुणों एवं उनके व्यक्तित्व के महत्त्व को निरूपित किया गया है। किन्तु इसकी विशेषता यह है कि इसमें स्तुति का किसी प्रकार की याचना नहीं करता । इसके पश्चात् स्तुतिपरक साहित्य के रचनाक्रम में हमारे विचार से "णमोत्थुण" जिसे "शक्रस्तव" भी कहा जाता है, निमित हा होगा, जिसमें किसी अहंत या तीर्थकर विशेष का नाम निर्देश किये बिना सामान्य रूप से अहंतों की स्तुति की गई है । जहाँ मूत्रकृतांग की वीरथुई पद्यात्मक है वहाँ यह गद्यात्मक है। दूसरी बात इसमें अर्हन्त को एक लोकोत्तर पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है जबकि वीरस्तुति में केवल कुछ प्रसंगों को छोड़कर सामान्यतया महावीर को लोक में श्रेष्ठतम व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लोकोत्तर रूप में नहीं। यद्यपि आवारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में वर्णित जीवन वृत्त की अपेक्षा मो इसमें लोकोत्तर तत्त्व अवश्य प्रविष्ट हुए हैं। स्तुतिपरक साहित्य में उसके पश्चात् देवेन्द्रस्तव नामक प्रकीर्णक का स्थान आता है जिसके प्रारम्भिक एवं अन्तिम गाथाखों में तीर्थरों की स्तुति की गयी है। शेष ग्रन्थ इन्द्रों एवं देवों के विवरणों से भरा पड़ा १. सूत्रकृतांग मूत्र-मुनि मधुकर - छठा वीरत्धुइ अध्ययन ।
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वीरत्यओ है ! इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें भी ग्रंथकार ने तीर्थंकर और इन्द्रादि देवताओं से किसी भी प्रकार की मोतिक कल्याण की कामना नहीं की है। केवल प्रन्थ की अन्तिम गाथा में कहा गया है कि सिद्ध मुझे सिद्धि प्रदान करें।
देवेन्द्रस्तव की प्रथम गाथा में ही प्रथम तीर्थंकर ऋषम एवं अन्तिम तीर्थंकर महावी को नमस्कार किया गया है | अतः यह स्पष्ट है कि ग्रन्थकार ऋषिपालित के समक्ष २४ तीर्थकरों की अब. धारणा उपस्थित थी। इस प्रकार स्तुतिपरक साहित्य के विकासक्रम में 'देवेन्द्रस्तव' पर्याप्त प्राचीन सिद्ध होता है। स्तुतिपरक साहित्य में इसके पश्चात् 'चविंशतिस्तव' (लोगस्स-चोवीसत्यव) का स्थान आता है। लोगस्स का निर्माण तो चौबीस तीर्थकर की अवधारणा के बाद ही हुआ होगा । त्रीरत्थुइ, नमृत्यणं और देवेंदत्थओं इन तीनों ग्रन्थों की विशेषता यह है कि इनमें भक्त या रचनाकार अपने आराध्य के गुणों को स्मरण करता है। उनसे किसी प्रकार की लौकिक या आध्यात्मिक अपेक्षा नहीं रखता जब कि लोगस्स में माराधक अपने माराध्य से यह प्रार्थना करता है कि हे तीर्थंकर देव! आप मुझ पर प्रसन्न हों और मुझे आरोग्य, बोधिलाभ तथा सिद्धि प्रदान करें। ___ जहाँ तक प्रस्तुत बीरत्यको प्रकीर्णक का प्रश्न है इसमें महावीर की २६ नामों से स्तुति की गयी है । इसमें ग्रन्थकार ने अरूह, अरिहंत, अरहंत, देव, जिन, वीर, परमकारुणिक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी. पारंगत, त्रिकालविज्ञ, नाथ, वीतराग, केलि. त्रिभुवनगुरु, सम्पूर्ण, विभवन में श्रेष्ठ, भगरान, तीर्थंकर, शक्रोन्द्र द्वारा नमस्कृत, जिनेन्द्र, वर्धमान, हरि, हर, कमलासन एवं बुद्ध इन छब्बीस नामों का व्युत्पत्तिपरक अर्थ करते हुए इन गुणों को महावीर पर घटित किया गया है और इसके ब्याज से उनकी स्तुति की है और अन्त में यह याचना करते हुए अन्य का समापन किया है कि कृपा करके मुझ मन्दपुण्यशाली को निर्दोष शिवपद प्रदान करें।
स्तुतिपरक साहित्य में सम्भवतः लोगस्स ही प्रथम रचना है जिसमें याचना की भाषा का प्रयोग हुआ है । जैन दर्शन की तो स्पष्ट १. देवेन्द्रस्तव-गाथा ३१ । २. देवेन्द्रस्तय प्रकीर्णक-साधा ९ । ३. वीरन्थाओ-गाथा ४३ !
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भूमिका
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मान्यता रही है कि तीर्थंकर तो वीतरागी होते हैं अतः वे न तो किसी का हित करते हैं, न अहित, वे लो मात्र कल्याणपथ के प्रदर्शक है । लोगस्स के पाठ को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ सहवर्ती हिन्दु परम्परा से प्रभावित है। लोगस्स में बारोग्य, बोधि एवं निर्वाण इन तीनों बातों की कामना की गयी है जिसमें अरोग्य, का सम्बन्ध बहुत कुछ हमारे ऐहिक जीवन के कल्याण के साथ जुड़ा हुआ है । परन्तु चाहे वह इस लोक के कल्याण हेतु कामना हो या पारलौकिक कल्याण की कामना. धीरे-धीरे परवर्ती समय में यह तत्त्व जैन रचनाओं में प्रविष्ट होता गया जो जैन दर्शन के मूल सिद्धान्त वीतरागता की अवधारणा से संगति नहीं रखता है। जैन दर्शन में स्तुति का क्या स्थान हो सकता है इसको चर्चा आचार्य ! समन्तभद्र ने अपने स्वयम्भू स्तोत्र में की हैं। वे लिखते हैं कि हे प्रभु आप वीतराग है अतः आपकी स्तुति से आप प्रसन्न नहीं होंगे और लाप वीद्वेष हैं अतः निन्दा से नाराज नहीं होंगे फिर भी मैं आपकी स्तुति इसलिये करता हूँ कि इससे चित्त मल की विशुद्धि होती है ।
सन्दर्भ में आगे चलकर यह माना जाने लगा कि तीर्थंकर की भक्ति से उनके शासन के यक्ष-यक्षी (शासन देवता) प्रसन्न होकर भक्त का कल्याण करते हैं तो लोगों में शासन देवता के रूप में यक्ष एवं यक्षी की भक्ति की अवधारणा का विकास होने लगा और उनकी भी स्तुति की जाने लगी । "उग्गहर" प्राकृत का सबसे पहला तीर्थंकर के साथ-साथ उनके शासन के यक्ष को स्तुति करने वाला स्तोत्र है । इस स्तोत्र के कर्ता वाराहमिहिर के भाई द्वितीय भद्रबाहू (ईसा की छठीं शती) को माना जाता है ।
इसके पश्चात् प्राकृत संस्कृत और आगे चलकर मरु-गुर्जर में अनेक स्तोत्र बने, जिनमें ऐहिक सुख-सम्पदा प्रदान करने की भी कामना की गयी । यह सब चर्चा हमने सिर्फ स्तुतिपरक माहित्य के विकासक्रम पर दष्टिपात करने के उद्देश्य से की है कि स्तुतियों का किस क्रम से किस रूप में विकास हुआ । वीरस्तव भी ऐसा ही एक स्तुतिपरक ग्रन्थ है ।
१. स्वयम्भुस्तोत्र - ५७
२. उवसग्गहर स्नांत्र - गाथा १ - ९ ।।
३. देवेन्द्रस्तव भूमिका - पृष्ठ १५ ।।
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प्रन्ध में प्रयुक्त हस्तलिखित प्रतियों का परिचय
मुनि श्री पुण्यविजय जी ने वीरस्तव अन्य के पाठ निर्धारण में निम्न हस्तलिखित प्रतियों का प्रयोग किया है
(१) सं०-थी हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिर पाटन की प्रति । यह प्रति संघवीपाड़ा जैन ज्ञान भण्डार की है, जो ताइपत्र पर लिखी
(२) हं०-श्री आत्माराम जैन ज्ञान मन्दिर, बड़ौदा की प्रति । यह प्रति मुनि श्री हंसराज जी म. सा. के हस्तलिखित ग्रन्थसंग्रह की है।
((३० प्र०--श्री पूज्यपाद प्रवर्तक श्री कांतिविजय जी म. सा. के संग्रह की प्रति की कोई नकल है।
(४) पु०-१-श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद में सुरक्षित, यह प्रति मुनि श्री पुण्यविजय जी म. सा. के संग्रह की है।
हमने उक्त क्रमांक १ से ४ तक की इन पाण्डुलिपियों के पाठ भेद मुनिपुण्पविजय जी द्वारा सम्पादित पइण्णय सुत्ताई' नामक ग्रन्य से लिये हैं। इन पाण्डुलिपियों की विशेष जानकारी के लिए हम पाठकों से 'पइयणय सुत्ताई' ग्रन्थ की प्रस्तावना के पृष्ठ २३-३० देखने की अनुशंसा करते हैं। ग्रन्थ के कर्ता एवं रचनाकाल--
प्रकीर्णक ग्रन्थों के रचयिताओं के सन्दर्भ में मात्र देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक के कर्ता ऋषिपालिस का उल्लेख मिलता है, इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकीर्णक के कर्ता का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता। हालांकि पइपणय सुत्ताइ भाग १ को प्रस्तावना में मुनि पुग्यविजय जी ने, प्राकृत साहित्य के इतिहास में जगदीश चन्द्र जी जैन ने , जैन
१. पइण्णय सुसाई भाग १-प्रस्तावना १७-१८ । २. प्राकृत साहित्य का इतिहास-प० १२८
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भूमिका
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आगम साहित्य : मनन और मीमांसा में, देवेन्द्र मुनि शास्त्री' ने चतुःशरण आतुर प्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा एवं आराधना पताका के कर्ता के रूप में वीरभद्र का उल्लेख किया है परन्तु तत्सम्बन्धी प्रमाण की कोई चर्चा नहीं की है।
जैन परम्परा में वीरभद्र के दो उल्लेख प्राप्त होते हैं । प्रथम वीरभद्र तो महावीर के साक्षात् शिष्य माने जाते हैं किन्तु इनकी ऐतिहासिकता स्पष्ट नहीं है । द्वितीय वीरभद्र का उल्लेख वि० सं० १००८ प्राप्त होता है। हो सकता है वीरस्तव द्वितीय वीरभद्र की ही रचना हो । वीरस्तव में ग्रन्थकर्त्ता ने कहीं पर भी अपने नाम का संकेत नहीं किया है । इसके पीछे ग्रन्थकार की यह भावना रही होगी कि महावीर के विभिन्न नामों से मैं जो स्तुति कर रहा हूँ व सर्वप्रथम मेरे द्वारा तो की नहीं गयी है । अनेक पूर्वाचार्यों एवं ग्रन्थकारों द्वारा इन नामों से महावीर की स्तुति की जा चुकी है। इस स्थिति में में ग्रन्थ का कर्त्ता कैसे हो सकता हूँ ? इसमें मन्थकार की विनम्रता एवं प्रामाणिकता सिद्ध होती है । वैसे भी प्राचीन स्तर आगम ग्रन्थों में कर्त्ता का नामोल्लेख नहीं पाया जाता है अतः यह माना जा सकता है कि वीरस्तव भी प्राचीन स्तर का ग्रन्थ है ।
के
जहाँ तक वीरस्तव के रचनाकाल का प्रश्न है, सूत्र में आगमों का जो वर्गीकरण प्राप्त होता है कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है ।
नन्दी एवं पाक्षिक उसमें वीरस्तव का
इसके पश्चात् दिगम्बर परम्परा की तत्त्वार्थ की टीकाओं एवं यापनीय परम्परा के मूलाचार, भगवती आराधना आदि में भी वीरस्तव का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। इसले यह तो स्पष्ट है कि यह छठीं शताब्दी के पूर्व में अस्तित्व में नहीं था । वीरस्तव प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख विधिमार्गप्रपा नामक ग्रन्थ में प्राप्त होता है इससे यह स्पष्ट है कि वीरस्तव प्रकीर्णक नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र अर्थात् छठीं शताब्दी के पश्चात् तथा विधिमार्गप्रपा १४वीं शताब्दी के पूर्व अस्तित्व
१. ( अ ) जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा पृ० ४००
(a) The Canonical Literature of the Jainas Page-51-52 २. The Canonical Literature of the Jainas Page 52
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वीरत्यमा में आ चुका था। पुनः यदि हम अनेक प्रकीर्णकों के रचयिता के समान इस प्रकीर्णक के कर्ता भी वीरभद्र को माने तो उनका काल १०वीं शताब्दी निश्चित है । ऐसी स्थिति में वीरस्तब का रचनाकाल भी ईस्वी सन् की १०वीं शताब्दी होना चाहिए किन्तु वीरभद्र वीरत्पओ के रचयिता हैं इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। अतः इस बारे में विशेष अधिकार न कर पाना बहुत मुश्किल है। यहाँ पर तो हम इतना ही कह सकते हैं। बोरस्तत्र के रचनाकाल के सम्बन्ध में एक अनुमान यह किया जा सकना है, सर्वप्रथम आचागि के द्वितीय श्रुत स्कन्ध के भावना अध्ययन में और कल्पसूत्र में महावीर के तीन गुण निष्पन्न नामों का उल्लेख हुआ है । जब हिन्द पुराणों में विष्ण आदि के सहस्त्रनाम देने की परम्परा का विकास हा तो जनों में भी उसका अनुसरण करके जिन सहस्रनाम लिखे गये। सबसे प्राचीन जिनसहस्रनाम जिनसेन लगभग ९वीं पाती का है। प्रस्तुत कृति में मात्र २६ नाम हैं--इससे ऐसा लगता है कि, यह कृति उसके पूर्व ही कभी लिखी गई हो। सुज्ञ जन इस बारे में विशेष एवं विवेचन खोजकर इस कमी को पूरा करेंगे।
विषयवस्तु · वीरस्तय प्रकीर्णक में कुल ४३ गाथाएं हैं। इन गाथाओं में श्रमण भगवान महावीर के २६ नामों की व्युत्पत्तिपरक स्तुति प्रस्तुत की गयी है। ग्रन्थकार ने महावीर को अरूह, अरिहत, अरहंत, देव, जिन, वीर, परमकारुणिक, सार्वज्ञ, सर्वदर्शी, पारग, विकालविज्ञ, नाथ, वीतराग, केवलि, त्रिभुवन गुरु, सयं, त्रिभुवन में श्रेष्ठ, भगवान, तीर्थकर, पाकेन्द्र द्वारा नमस्कृत, जिनेन्द्र, वर्धमान, हरि. हर, कमलासन और बुद्ध विशेषण देकर उनका गुण कीर्तन किया है। (गाथा १.४) इन छबीस नामों का व्युत्पत्तिपरक अर्थ निम्न प्रकार किया है
११) अहह--महावीर को जन्म-मरण रूपी संसार के बीज को अंकुरित करने वाले कर्मों को ध्यान रूपी ज्वाला में जलाकर संसार में पुनः उतान नहीं होने के कारण 'अरूह' कहा गया है । (गाथा ५)
(२) मरिहंत-चोर उपसर्ग, परिषद एवं कषायो का नाश करने बाले, वन्दन स्तुसि, नमस्कार. पूजा, सत्कार एवं सिद्धि के योग्य
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भूमिका तथा देव, मनुष्य एवं इन्द्रों से पूजित होने के कारण अरिहंत कहा गया है । (गाधा ६-८)
(३) परहंत -समस्त परिग्रह से रहित (अरह), जिससे कुछ भी छिपा हुआ नहीं है (अरहस्), श्रेष्ठ ज्ञान के द्वारा निज स्वरूप को प्राप्त, मनोहर एवं अमनोहर शब्दों से अलिप्त, मन, वचन, शरीर से आचार में रमे हुए, श्रेष्ठ देवों एवं इन्द्रों से पूजित एवं मोक्षद्वार पर स्थित होने से महावीर को अरहंत कहा गया है । (गाथा ९-१२)
४) देव नाम--सिद्धिरूपी स्त्री से क्रीड़ा करने वाले, मोह रूपी शत्र के विजेता, अत्यन्त शुभ एवं पुण्य परिणामों से युक्त होने के कारण देव कहा गया है । (गाथा १३)
(५) जिन--रागादि शत्रु से रहित तथा वचन समाधि एवं ससार के उत्कृष्ट गुणों से युक्त होने से उन्हें जिन कहा गया है । (गाथा १४)
(६) वीर--दुष्ट अष्ट कर्मों से रहित, भोगों से विमुख, तप से शोभित एव माध्य की ओर अग्रसर होने के कारण महावीर कहा गया है । (गाथा १५-१६)
(७) परम कारणिक - दुःखों से पीड़ित प्राणियों को संसार से मुक्त कराने में लगे हुए, शत्रु एवं मित्र सभी पर परम करुणावान होने से वे परम कारुणिक हैं । (गाथा १७)
(a) सर्वज्ञ -अपने निमंल ज्ञान से भूत, भविष्य एवं वर्तमान को जानने वाले हैं, अतः आप सर्वज्ञ हैं । (गाथा १८)
(९) सर्वदशों-सबके रूपों एव क्रियाकलापों को एक साथ अवलोकन करते हैं, अतः वे सर्वदर्शी कहलाते हैं । (गाथा १९)
(१०) पारग- समस्त प्राणियों के कर्म भवों को तिराने में समर्थ एवं मार्ग प्रशस्त करने वाले होने से उन्हें पारग कहा गया है।(गाथा २०)
(११) त्रिकालज्ञ -संसार के होने वाले भूत, भविष्य एवं वर्तमान को हाथ में रखे हुए आंवले की तरह देखने में समर्थ होने से महावीर को त्रिकालज्ञ कहा गया है। (गाथा २१)
(१२) नाथ -भव-भवान्तर से संसार में पड़ हुए अनाथों के लिए मंगल उपदेश प्रदाता होने से आप नाथ हैं। (गाथा २२)
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वीरत्यओ
(१३) वीतराग--विषयों में अनुरक्त भावों को राग एवं विपरीत भावों को द्वेष कहा जाता है । ब्रह्मा, विष्णु, महादेव आदि के अहंकार को गलित करने पर भी अहंकार से रहित तथा शरीर में अनेक देवों का निवास स्थान होने पर भी विकार रहित होने के कारण आपको वीतराग कहा गया है (गाथा २३-२७)
(१४) केवलो-सर्व द्रव्यों को सर्व पर्यायों को तीनों कालों में एक साथ जानने से, अप्रतिहत शक्ति के धारणहार श्रेष्ठ साधु व्रत से युक्त होने से केवली कहा गया है । गाथा २८-२९)
(१५) त्रिभुवन गुरु- लोक में सद्धर्म का विनियोजन करने के कारण त्रिभुवन गुरु कहा गया है । (गाथा ३०)
(१६) सर्व--सभी प्राणियों के दुःखों के नाशक एवं हितकारी उपदेशक होने से महावीर को सम्पूर्ण कहा गया है । (गाथा ३१)
(१७) त्रिभुवन श्रेष्ठ-बल, वीर्य, सौभाग्य, रूप, ज्ञान-विज्ञान से युक्त होने से त्रिभुवन श्रेष्ठ कहा गया है । (गाथा ३२)
(16) भगवन्-प्रतिपूर्ण रूप धर्म, कांति, प्रयत्न, यश एवं श्रद्धा वाले होने से तथा इह लौकिक एवं पारलौकिक मयों को नष्ट करने वाले होने से महावीर को भगवान कहा गया है । (गाथा ३३.३४)
(१९) तीर्थकर चतुर्विध संघ रूप तीर्थ की स्थापना करने वाले होने के कारण महावीर को तीर्थकर नाम दिया गया है । (गाथा ३५)
(२०) शकेन्द्रनमस्कृत:---गुणों के समूह से युक्त आपका इन्द्रों द्वारा भी कीर्तन किया जाता है इसलिए आपको शकेन्द्र द्वारा अभिवन्दित कहा जाता है । (गाथा ३६)
(२१) जिनेन्द्र--मनःपर्याय ज्ञानी एवं उपशान्त क्षीण मोहनीय व्यक्ति जिन कहे जाते हैं और वे उनसे भी अधिक ऐश्वर्यवान हैं अतः महावीर जिनेन्द्र हैं ।. (गाथा ३७)
(२२) वर्षमाण-महावीर के गर्भ में आने से राजा सिद्धार्थ के घर में वंभव, स्वणं, जनपद एवं कोश में भारी वृद्धि हुई, इस कारण उन्हें वर्षमाण कहा गया है। ( गाथा ३८)
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भूमिका
(२३) हरि-हाथ में शंख, चक्र एवं धनुष चिह्न धारण किए हुए होने से उन्हें विष्णु कहा जाता है । (गाथा ३९) ।
(२४१ महादेव - प्राणियों के बाह्य एवं आभ्यंतर कमरज के हरण करने वाले होने से, खट्वाङ्ग एवं नीलकण्ठ युक्त नहीं होने पर भी भाप महादेव कहे जाते हैं । (गाथा ४०)
(२५) ब्रह्मा -कमलासन, दानादि चार धर्म रूपी मुख होने से एवं हेस अवस्था में गमन होने से आप ब्रह्मा कहे गये हैं। (गाथा ४१)
(२६) त्रिकालविश---जीवादि नव तत्त्व जानने वाले एवं श्रेष्ठ केवलज्ञान के धारक होने से आपको त्रिकालविज्ञ कहा जाता है। (गाथा ४२
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वीरस्तव प्रकीर्णक की विषयवस्तु एवं नामों का जेन
आगमो एवं अन्य स्तुतिपरक ग्रन्थों में विस्तार वीरस्तव प्रकीर्णक में प्राप्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि उसमें महावीर के २६ नामों से स्तुति की गयी है । स्तुतिपरक साहित्य के विकासक्रम में आगे चलकर गुणसूचक विभिन्न पर्यायवाची नामों के अर्थ की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या करते हुए उसके न्याज से स्तुति करने की एक परम्परा ही चली। इस शैली में जिनसहस्रनाम, विष्णसहस्रनाम, शिवसहस्रनाम आदि रचनाएं निर्मित हुई । प्रस्तुत प्रकीर्णक इस शैली का प्रारम्भिक ग्रन्थ है।
वीरस्तव में प्रतिपादित नामों में से अनेक नाम आचारांग, सत्र. कृतांग, भगवनीसूत्र, शाताघमंकथांग, उपासक दशांग, अनुत्तरोपपातिकदशा आदि आगम ग्रन्थों में तथा जिनसहस्रनाम, अहंतसहस्रनाम, ललितविस्तरा आदि परवर्ती जैन ग्रन्थों एवं विष्णपुराण, शिवपुराण, गणेशपुराण आदि जैनेतर नन्थों में किञ्चित् भेद से प्राप्त होते हैं।
वीरस्तव में महावीर के जो २६ गुण निष्पन्न नाम गिनाए गये हैं उनमें से अनेक नाम अपनी प्राचीनता की दष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
प्रारम्भिक काल में प्ररहंत, अहंत, बुद्ध, जिन, वीर, महावीर आदि शब्द विशिष्ट ज्ञानियों महापुरुषों के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते थे। परन्तु धीरे धीरे ये शब्द केवल श्रमण परम्परा के विशिष्ट शब्द बन गये। पं० दलसुख भाई मालवणिया लिखते हैं कि अरिहंत एवं महंत शब्द भगवान् बुद्ध एवं महावीर के पहले ब्राह्मणा परम्परा में भी प्रयुक्त होते थे परन्तु भगवान बुद्ध एवं महावीर के पश्चात् ये दोनों शब्द केवल इन्हीं के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होने लगे । ज्ञानी जनों के लिए 'बद्ध' मान्द प्रचलन में था परन्तु बद्ध के बाद यह शब्द भी उनके ही विशेषण के रूप में प्रचलन में आ गया।
'जिन' शब्द भगवान महावीर के पूर्व सभी इन्द्रिय विजेता साधकों के लिए प्रयोग होता था परन्तु बाद में जिन शब्द जैनधर्म के तीर्थंकरों के विशेषणरूप से प्रयोग होने लगा और इनके अनुयायियों के लिए जैन शब्द प्रचलित हो गया। १. आचारांग ।।१२
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भूमिका
प्राचारांग सूत्र में महावीर के नाम -भगवान महावीर के संदर्भ में प्राचीनतम सूचना देनेवाला अन्य आचारांग सूत्र माना जाता है। यह ग्रन्थ मुख्यतः माधना-प्रधान है फिर भी इसमें उनके जीवनवृत्त की झलक इसके प्रथम श्रुतस्कन्म के ९वें उपधान श्रत में देखने को मिलती है। इसमें भगवान के साधना काल में 'भिनु' संज्ञा का स्पष्ट उल्लेख मिलता है । इसी में इनके कुल का परिचय देते समय शातपुत्र शब्द भी प्राप्त होता है | आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नवें अध्ययन में इनके लिए 'माहण', 'नाणो' और 'मेहायो' शब्दों का प्रयोग किया गया है । ये तीनों शब्द वीरस्त त्र में नहीं हैं ।
श्रवण भगवान महावीर के प्रति अपने पज्य भाव दर्शाने के कारण आचारांग में जगह-जगह पर 'भगवं', 'भगवते', 'भगवया' शब्द प्रयोग किये गये हैं। 'वीर' पाब्द का प्रयोग आचासंग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में प्राप्त तो होता है परन्तु वह अत्यन्त पराक्रमी आध्यात्मिक दृष्टि से पुरुषों के लिए प्रयुक्त हुआ है सम्भवतः यही आगे चलकर महावीर के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होने लगा होगा।
इसी प्रकार 'बुद्ध' एवं 'प्रबुद्ध' शब्द भी महावीर के विशेषण के रूप में आचारांग में प्राप्त होते हैं। बाद में यह वृद्ध मान्द भगवान बुद्ध के लिये प्रयक्त होने लगा और जैन परम्परा में इसका प्रचलन समाप्त होने लगा।
सारांश रूप से आचांराग में मुनि, भिक्षु, माण, मातृ पुत्र, भगवान, वीर, तीर्थकर, केवली. सर्वज्ञ आदि विशेषण विशेष रूप से महावीर के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं।
[२] सूत्र कुत्तांग सूत्र में महावीर के नामों को चर्चा -सूत्रकृतांग के प्राचीन अंश प्रयम श्रुत स्कन्ध में बोर स्तुति में प्रतिपादित नामों के १. आचासंग ९/११० २. यदी ९१११६, ९।१।२३ आदि । ३. (A) गमो भगवं महावीरे'' (प्राचारा ग १1१, ९४२।५, ९१३७
(B) महावीर चरित मीमांसा-पं. दलमुख मालवणिया-प० १४ ।। ४. एसं धीरे पमासिए, जे बझै पहिमायए । आचारसंग १।१४० ।। ५. महावीर चरित मीमांसा–पृ. १५ ।
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वीरत्यओ
कई नाम महावीर के लिए प्रयुक्त हुए हैं। यहां पर पूर्व आचारांग गत नामों के अतिरिक्त 'बोर' शब्द का उल्लेख हुआ है उदाहरण के लिए-- [अ] 'योर' सूत्रकृतांग-११।१।१। [ब] एवमाहु से वीरे-वही-१४।२।२२ । [स] उदाहु औरे-वही-१।१४।११। ____ 'भगवान्', 'जिन' एवं 'अरिहत' शब्द का प्रयोग पूर्व परम्परा की तरह ही प्रयुक्त हुए हैं। ___ आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में श्रमण भगवान महावीर के तीन नामों का उल्लेख हुमा है- वर्धमान, सन्मति और श्रमण । श्रमण भगवान महावीर के ज्ञातपुत्र, विदेह मादि नामो का भी उल्लेख प्राप्त होता है, जैसे- "समणे भगवं महावीरे नाए नायपुत्ते नाह कुलनिन्वते विदेह विदेहदिन्ने.."। ज्ञातव्य है कि वोर आदि नामों के साथ-साथ आचासंग के द्वितीय श्रत स्कन्ध में प्रथम बार तित्ययर, भगवं, अरहंत, केवलि, जिन सध्वण नामों का महावीर के लिए स्पष्ट रूप से प्रयोग हुआ है।।
सूत्रकृतांग में महावीर के लिए 'बुद्ध' शब्द का प्रयोग भी अनेक जगह हुआ है। साथ ही साथ अनन्तचक्षुसवी * त्रिलोकवर्णी
१. सूत्रकृतांग-११।।३।२२, १।१६।१, १।२।३, १९, १।९।२९ ।। २. आचारांग-२।१५।१७५ ३. वही-२।१७१ ४. (A) वही २।१०९ (B) मे भगचं अरह जिणे, केवली सम्वाणू सव्व भावदरिसी. "आचारांग
२।१५१७॥ ५. सूत्र कृतांगसूत्र--१।११।२५, १1१11३५, १।१५।१८। ६. वही-१।६।६। ७. वही-१।६१५ । ८. वही-११४।१६ ।
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भूमिका
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केवली' महषि मुनि प्रभु आदि शब्दों । विशेषणों का प्रयोग भी महावीर के लिए किया गया है।
स्थानांग सूत्र में महावीर के लिए 'भगवंत', 'तीर्थंकर', 'अहं', 'जिन', 'केवली' शब्दों का प्रयोग उनके विशेषण के रूप में हुआ है" ।
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समवायांग सूत्र में " समणस्स भगवग्रो महावीरस्स" शब्दों के उल्लेख के साथ-साथ 'तोर्थंकर', 'सिद्ध', 'बुद्ध', 'सहन' का भी उल्लेख अलग-अलग स्थानों पर हुआ है ।
भगवती सूत्र ज्ञाताधर्मकयोगसूत्र एवं अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र' में महावीर के विशेषणों की परम्परा और विकसित हुई और उन्हें महावीर, (धर्म के आदिकर्ता तीर्थंकर, स्वयंसंबुद्ध, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुष वर- पुण्डरीक, लोकोत्तम, लोकनाथ, धर्मसारथी, जिन, बुद्ध सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शित मिति को प्राप्त आदि विशेषणों द्वारा संबोधित कर उनका गुण कीर्तन किया गया है ।
१. सूत्रकृतांग सूत्र - १।१४ १५ १
२. बही - १-६-२६
३. वही - १-६-७ ॥
४. वही - १-६-२८ ।
५. स्थानांग सूत्र मुनि मधुकर १:१२/२०१२, ०५१६ ॥
६. समवांयाग सूत्र - मुनि मधुकर समवाय- ११ समवाय- १२, समयाय - २१ समवाय २४, समवाय ५४ आदि ।
७. समणे भगवं महाबीरे भानगरे, तित्धगरे, सहसंबुद्ध,
मी पुरुषवरपुण्डरिए लोगुत्त लोगना, लग
1
पुरुषन्नगे, पुरिस... श्रम्भदेसर,
मसारही जिगं जावए दुद्धे, बोहए मुझे गायए, सबण्णू, लब्बदरिसी, शिवमयल्स रुमणंतमक्खन मध्वाबाहम गुणवत्तयं सिद्धिइनामधेयं ठाणं संपाउिकामा ||
८. ज्ञाताधर्मकथांगसुत्र - मुनि मधुकर १८ । ९. अनुसरोपपातिकदशा -- मुनि मधुकर ११. ३।२२ ।
भगवतीसूत्र मुनि मधुकर ५/१ ।।
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वीरत्यो
उपासनदशांगसूत्र में यह गुण निष्पन्न नाम देने की परम्परा और विकसित हई और उसमें श्रमण भगवान महावीर, आदिकर, तीर्थकर, स्वयंसंवृद्ध, जिन, नारक, बद्ध, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव, अहंत, जिन, केवली आदि नामों के उल्लेख मिलते हैं ।
आगे चलकर न केवल अपनी परम्परा में प्रचलिल गुणनिष्पन्न नामों का संग्रह किया गया अपितु अन्य परम्परा में प्रचलित उनके इष्ट देयों के नामों को भी संग्रहित किया गया-जिन पात नाम जिन सहस्र नाम आदि रचनाएं निर्मित हुई । इसी प्रकार की शैली का संकेत हमें भक्तामर स्तोत्र में भी मिलता है जिसमें आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की स्तुति करते हुए उनके लिए शिव, विधाता, शंकर, पुरुषोतम आदि विशेषण गुण निष्पन्न नाम घटित किये गये । दिक एवं बौद्ध ग्रन्थों में नाम साम्यता--
वैदिक परम्परा में विष्णु को पुरुषोत्तम भी कहा गया है। पुरुषपुण्डरीक नाम भी वैदिक परम्परा में विष्ण के लिए विशेषण के रूप में प्रयक्त होता है। पुरुषवर, पुरुषपुण्डरीक एवं लोकानाथ शब्द विष्णु के लिए महाभारत में प्रयुक्त है।
बौद्ध परम्परा के प्रन्थों में अंगुत्तर निकाय के अतिरिक्त महावीर विशेषणों को ही बृद्ध के विशेषण के रूप में प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ विसुद्धिमग्ग है। उसमें इन सब शब्दों की विस्तृत व्याख्या की गयी है। सर्वज्ञ एव सर्वदर्शी शब्द पालित्रिपिटक में प्राप्त होते हैं । पालित्रिपिटक में महावीर के लिए विशेषण के रूप में सर्वज्ञ, सर्वदर्शी,
१. उदासगदसाओ-मुनिगधुकर-पृ. १३-१४ ॥ २. महावीर चरित मोमांगा दालसुख मारपिया-पृ० २२ ३. (अ) बही-पु. २९ (ब) तुलना. . 'सो भगवया अरह ...... पुरिसदम्मसारथी सत्या देवमण
स्माण बुद्धो भगवा-अनुत्तरनिकाय-३।२८५ ।। ४. विशुद्धिमार्ग-पु. १३३ ।। (४) "मञ्चषण सम्बदस्ताची अपरिमेसं
प्राणदस्सन पटि गानानि"--महावीर चरितमीमासा० पृ. २३ ।। ५. महावीर चरित मीमांना पु० २३ ॥
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भूमिका
तीर्थकर आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है।
हिन्दू धर्म में स्तुति की परम्परा बहुत प्राचीन समय से चली आ रही है। अन्य सभी मतावलम्बियों के समान उसने भी अपने आराध्य की स्तुति एक हजार आठ नामों से की है। उदाहरण के लिए विष्णसहस्रनाम, शिवसहस्रनाम, गणेशसहस्रनाम, अम्बिकासहस्त्रनाम, गोपालसहस्रनाम आदि स्तुतियाँ प्रचलन में है।
श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र कृत ललित विस्तरा जो कि नमोस्थणं शक्रस्तव को टीका है। में तीर्थकर के लिए प्रयुक्त विभिन्न विशेषणों की विस्तृत व्याख्या की गई है ।
इन मूल ग्रन्थों के अतिरिक्त पं० आशाधर ने वि० सं० १३०० के लगभग जिनसहस्र नाम से एक ग्रन्थ की रचना की. जिसमें उन्होंने १००० नामों से जिनेश्वर देव की स्तुति प्रस्तुत की है। इन १००८ नामों में वीरत्यओ के २६ नामों में से अनेक नामों का उल्लेख प्राप्त हो जाता है । दश शतकों में विभाजित इस ग्रंथ का पहला घातक जिननाम शतक है |१] इसमें भव' कानन (जन्म-मरण) सम्बन्धी अनेक महाकष्टों के कारण भूत विषम व्यसन रूपी कर्म रूपी शत्रुओं को जिसने जीत लिया है उसे 'जिन' कहा गया है ।
१२] वीतराग' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि राग के विनष्ट हो जाने से आप वीतरा है।
[३] द्वितीय सर्वज शतक में सर्वज्ञ' शब्द की व्याख्या कुछ इस तरह की है . १. महावीर चौरलमोमासा-पू. ! | २. जिन सहस्रनाम-प. प्राशावर-प्रस्तायना पु० ॥३-१४ ३. प्रणम्य 'भूवनालोक महावीर गिणोत्तमम्"-लदिनविस्तरा-१ । ४. नमोत्याग ..... तित्ययराण जिगाणं... 'गबण्ण सम्बदरिमीणं......
ललिनविरतरा--वन्दना सूप पृ. २१।। ५, जिन-गर्वन-यज्ञाह-तीर्थकन्नाथ-योगिनाम् ।
निर्वाण-ब्राह्म-वृद्धान्तकृतां चाप्टोनरैः शनैः ।। ( जिनसहननान ११५) ६. कर्मारानीन् जयति सायं गति नि जिन. (जिनमहननाम-टीका प० ५८) ७. 'बीतो विनष्टो रागो यस्येति नीनराग" जिनसहननाम पृv ६१
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३
वीरस्यो "लोक्य-कालत्रयवर्ति द्रव्यपर्यायसहितं वस्त्वलोकं च जानातीति । सर्व वेत्तीति ।
अर्थात् त्रिलोक त्रिकालवी सयंदव्य पर्यात्मक वस्तु स्वरूप को जानने वाले होने के कारण आप सर्वश हो ।
[४] यहीं पर सर्व चराचर जगत् को देखने वाले होने के कारण "सर्वदर्शी' नाम दिया गया है।
[५] 'केवलो' केवल शान के धारक होने से मुनिजनों द्वारा आपको ऐवली हा जाता है।
[६] 'भगवान' 'भग' शब्द ऐश्वर्य, परिपूर्ण ज्ञान, तप, लक्ष्मी, वैराग्य एवं मोक्ष इन छ: अर्थों का बाचक है और आप इन छहों से संयुक्त हैं अतः आप भगवान है |
[७] महन्, अरिहंत, अरहत जिनसहस्रनाम में इन तीनों को एक ही मानकर कहा गया है कि आप दूसरों में नही पायी जाने वाली पूजा के योग्य होने से अहन है । अकार से मोह रूप अरिका, रकार से ज्ञानावरण एवं दर्शानावरण रूप रज का तथा रहस्य अर्यात अन्तराय कर्म का ग्रहण किया है । हे भगवान! आपने इन चारों ही धातिया कर्मो का हनन किया है इस कारण आप अहण, अरिहंत और अरहंत इन नामों से पुकारे जाते हैं।
[८] 'तीयंकर' जिसके द्वारा संसार सागर से पार उतरते हैं उसे तीर्थ कहते हैं। जगत् के प्राणी आपके द्वारा प्ररूपित बारह अंगों का आश्रय लेकर भव को पार होते हैं। आप इस प्रकार के तीर्थ के करने वाले हैं इसलिए आपको तीर्थकर कहा जाता है |
२. जिनसहरनाम शतक-२, पृष्ठ ६५ ॥ ३. वहीं, शतक-२, पृष्ठ ६१ ।। ४. वहीं, शतक-२, पृष्ठ ६८ ॥ ५. 'भगो ज्ञान परिगणैश्वर्य नपः श्रीराग्यं मोक्षश्न विद्यते यम्म स तथोक्त"
(जिनसहस्रनाम, शतक ३, पृ०७०) ६. बिनमहलनाम, पातक ३ पृष्ठ ७० । ५. वही, पातका ४, पृ० ७८ ।
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भूमिका ९'माय' कंबल्यावस्था में भक्त आपसे स्वर्ग एवं मोम की प्राप्ति हेतु याचना करते हैं अतः आपको नाथ कहा जाता है।
[१०] 'महाकाणिक' महान क्याल स्वभाव होने के कारण आपको महाकारुणिक कहा गया है ।
[१९| 'वीर' महावीर को श्रेष्ठ एवं निज भक्तों को विशिष्ट (उपदेशात्मकरूपी) लक्ष्मी प्रदाता होने के कारण वीर कहा है ।
[१२] 'वर्षमान' आप ज्ञान वैराग्य एवं अनन्त चतुष्टय रूप लक्ष्मी से निरन्तर वृद्धिगत होते हैं अतः वर्धमान है अथवा ज्ञान एवं सन्मान रूप परम अतिशय को प्राप्त होने के कारण आप वर्णमान है ।
[१३] कमलासन' यहां पर कमलासन के ३ कर दिये हैं
[i] समवशरण में कमल पर अन्तरिक्ष में विराजित रहते हैं, अतः कमलासन है अथवा आप पद्मासन से विराजमान रहकर धर्मोपदेश देते हैं । अतः कमलासन है।
[ii] विहार के समय देवगण आपके चरणों के नीचे सुवर्णकमलों की रचना करते हैं। इसलिये आप कमलासन हैं।
[iii 'क' अर्थात् आत्मा के अष्टकर्मरूपी 'मल' का सम्पूर्ण विनाश करते हैं अतः आप कमलासन है"।
[१४' पापों का हरण करने वाले होने से आप हरि कहे जाते हैं। ___ [१५ / 'बुद्ध' आप केवलज्ञान रूपी बुद्धि को धारण करने वाले होने के कारण बुद्ध कहलाते हैं । १. नाश्येने स्वर्ग-मोक्षो मान्यते भक्तर्वा नाथ: ।।
-जिनसहरनाम शतक ५, पाष्ठ ४८ २. जिनसहस्रनाम-पं. आशाधर १० ९५ । ३, यही, पतक ७, पृ० १०२ | ४, वहीं शतक पृ० १० । ५. जिनसहननाम-शतक ८, पृ० १०८ । ६. वही, पृष्ठ ११ । ७. वही। शतक ९ पृष्ठ ११९ ।
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वीरत्थो
इस प्रकार जिन सहस्रनाम के दस शतकों में बारस्तव के ३६ में से १५ नामों की समानतः . होती है।
इसके पूर्व आचार्य जिन सेन ने जिन सहस्र नाम से दस शतकों का एक ग्रन्थ लिया था। इसी प्रकार भट्टारक सफल कीति ने भी जिन 'सहस्र नाम का' १२३ दलोकों का एक ग्रप लिखा । श्वेताम्बर परम्परा में हेमचन्द्राचार्य ने 'श्री अर्हन्नामसहस्रसमुच्चयः' नाम से १२३ श्लोकों का ग्रन्थ लिखा, जिनमें भी महावीर के अनेक पर्यायवाची नामों एवं गुणों का संकीर्तन किया गया है । __इस प्रकार जैन आगमों एवं अन्य स्तुतिपरक ग्रन्थों के तुलनात्मक विवेचन में हमने अपनी ज्ञान सीमाओं को ध्यान में रखते हुए पर्चा प्रस्तुत की है। हमारी यह इच्छा अवश्य थी कि वीरस्थो में प्रतिपादित एक-एक शब्द का जैन बौद्ध एवं वैदिक परम्परा में विस्तार खोजा जाय, परन्तु इससे ग्रन्थ प्रकाशन में विलम्ब होना स्वाभाविक था । हम आशा करते हैं कि स्तुतिपरक साहित्य में रूचि रखने वाले विद्वान विस्तृत तुलनारमक अध्ययन कर इस कमी को पूरा करेंगे। इसी शुभेच्छा के साथ-- वाराणसी
सागरमल जैन १ जनवरी १९९५
सुभाष कोठारी
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वीरत्थओ
( वीरजिणस्स छब्बीसई नामधेयाणि )
नमिऊण जिणं जयजीवबंधवं भवियकुमुयरयणियरं । वीरं गिरिदधीरं पडत्यनामेहि ॥ १ ॥
थुणामि
अह् ! १ अरिहंत ! २ अरहंत ! ३ देव ! ४ जिण ! ५ वोर ! ६ परमकारुणिय ! ७ । सवष्णु ! 4 सव्यदरिसी । ९ पारय ! १० तिक्काल विउ |११ नाह ! १२ ।। २ । जय वीयराय ! १३ केवलि ! १४ तियणगुरु ! १५ सब ! १६ agreg ! १७ | भगवं ! १८ तित्थयर ! १९ त्तिय सक्के हि नमसिय ! २० जिदि ! २१ ।। ३॥
सिश्विद्धमाण ! २२ हरि २३ हर २४ कमलासण २५ पमुह (? बुद्ध) २६ नामधे एहि । * अनत्यगुणजुएहि जडमईवि सुषाणुसारेण || ४ || दाराई | [चहि कलावगं ]
[१] प्रणामं ]
भववीयंकुरभूयं कम्म बहिण 'साणजलणेण न हसि भववणगहणे, तेण तुमं नाह ! 'अहो' सि ॥ ५ ॥ ॥ दारं १ |
१. सददंसण १९ सं०० ॥
२. अन्वर्षगुणयुतः ॥1
३. झाणजुगलेण हूँ० ॥
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1
|
वोरस्तुति
( वीर जिनेन्द्र के छब्बीस नाम )
(१-४) जगत् के जीवों के बंधु, भव्यजन रूपी कुमुदिनी को विकसित करने के लिए चन्द्रमा के समान हिमवान् पर्वत के समान धीर जिनेन्द्र भगवान वीर को नमस्कार करके उनकी निम्न प्रचलित (प्रकट) नामों के द्वारा स्तुति करता हूँ
(१) अह (पुनर्जन्म को ग्रहण नहीं करने वाले) (२) बरिहंत ( कर्मरूपी शत्रु का नाश करने वाले ) (३) अरहंत ( पूजनीय ) (४) देव (५) जिन (६) वीर (७) परम कार्यणिक ( ८ ) सर्वज्ञ ( ९ ) सर्वदर्शी (१०) पारगामी ( 19 ) त्रिकालज्ञ ( १२ ) नाथ (१३) वीतराग (१४) केवल (१५) त्रिभुवन के गुरु (१६) पूर्ण (१७) तीनों लोकों में श्रेष्ठ (१८) भगवान (१९) तीर्थङ्कर ( २० ) इन्द्रों द्वारा वन्दनीय (२१) जिनेन्द्र (२२) श्री वर्धमान (२३) हरि (२४) हर (२५) कमलासन (२६) प्रमुख (बुद्ध) एवं इसी प्रकार के उनके अन्य अनेक गुणसम्पन्न नामों को जड़मति भी श्रुत के अनुसार जान सकता है ।
( १ प्ररूह )
(५) जन्म-मरणरूपी संसार के बीज को अंकुरित करने वाले कर्म को ध्यान रूपी ज्वाला से जलाकर संसार रूपी गहन वन में पुनः उत्पन्न नहीं होने के कारण हे नाथ ! बाप अरूह ( अ + ६ = नहीं उगने वाले अर्थात् पुनः जन्म नहीं लेने वाले ) हैं ।
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३८
बीरस्थ
[२] अरिहंतणामं ]
वसग्ग- परीसह कसाय करणाणि पाणिणं अरिणो । सलाण-नाह । ते हृणसि जेण, तेणा "तो' सि ।। ६ ।।
बंद- जण मंसण-पूराण सक्करण सिद्धिगमणस्मि । बरहो सि जेण वरपहू !, तेण तुम होसि 'अरिहितो' ॥ ७ ॥
अमर-नर- असुरवरपडुगणाण पूयाए जेण अरिहो सि । 'धीर [स] मणुम्मुक्कों, तेण तुमं देव ! 'अरिहंतो ॥ ८ ॥ दारं २ |
[२] अरहंतणाम ]
* रहु-गडिड सेससंगनिदरिसणमंतो- गिरिगृह्मणाणं । तं ते नत्थि दुयं पिह्न मिणिंद !, तेणारहंतो सि ॥ ९ ॥
रहमतो अतंपि मरणमवणीय जेण वरनाणा | " संपत्तनिय सरूवो जेण, तुमं तेण अरहंतो ||१०|
1
१. तथाऽरिहो' तंसि प्र० ॥
२. बाइ जेण अरिसिहं० ॥
३. धीरमणमणुं प्र० ॥
४. रद्द गड्डि प्र० ञया गायायाश्छाया - रघः गन्धी, शेपसंग्रह निदर्शनम्, अन्तर = गिरिगुहा अज्ञानम् । तत् ते नास्ति द्वयमपि हि जिनेन्द्र ! तेन अन्तर् असि ।।
=
=
५. रहः अप्रान्तः अन्तमपि मरणम् अपनीय मेन वरज्ञानात् । सम्प्राप्त निजस्वरूप येन त्वं तेन अरहोऽन्तः ॥ इति च्छाया ॥
६. अन्नं पि सं० १ अग्गं पि श्र० ॥
७. संपक्षनिय सं० ॥
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श्रीरस्तुति
(a figa)
( ६ ) आपने घोर उपसर्ग, परिषद् और कषाय के कारण भूत प्राणियों के समस्त कर्म रूपी शत्रुओं का नाश कर दिया है, इस कारण हे नाथ! आप 'अरिहंत' (मरि+हंत शत्रु का हनन करने वाले) हो ।
=
३९
(७) हे श्रेष्ठ प्रभु ! आप वन्दन, स्तुति, नमस्कार, पूजा और सरकार के योग्य तथा सिद्धि को प्राप्त करने में समर्थ हो, इसलिए आप 'अरिहंत' (अरिह योग्य या सामर्थ्यवान ) हो ।
=
(4) हे जिनदेव ! आप देव, मनुष्य एवं असुरों के श्रेष्ठ स्वामियों अर्थात् इन्द्रों के समूह से पूजित तथा बीर एवं मन अर्थात् सकल्पविकल्प से रहित हो, इसलिए 'अरिहंत' (अहं> पूजायाम् - पूजित) हो ।
( ३ अरहंत )
(९) आप 'र' अर्थात् रथ ( गाड़ी ) प्रकारान्तर से समस्त परिग्रह और रह्स अर्थात् पर्वत की गुफा के अंधकार के समन अज्ञान इन दोनों से 'अ' अर्थात् रहित हो इस कारण आप अरहंत हो ।
(१०) आपने अपने त्यागमार्ग एवं श्रेष्ठज्ञान (केवलज्ञान ) से मृत्यु को भी अवनत अर्थात् परास्त कर दिया है और निज स्वरूप को प्राप्त कर लिया है, इसी कारण आप अरहत हो ।
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M
.
वीरथओ
न रहसि सद्दाइ मणोहरेसु अमणोहरेसु तं जेण । समयारंजियमण करण-जोग ! तेणारहतो सि ॥११॥
अरिहा - जोग्गा पूयाझ्याण देविद-
उत्तरसुराई।। ताण वि अंतो= सीमाकोडी, तं तेण 'मरहतो' ॥१२॥ दारं ३ ।
[४ वेवणाम सिद्धिबहुसंगकीलापरो सि, विजई सि मोहरिउवग्गे। गंतसुहपुनपरिणइपरिगय !, तं तेण 'देवोत्ति ॥१३॥। दारं ४ ।
[x जिणणाम] रागाइवेरिनिक्कितणेण, दुहमओ वि वयसमाहाणा। जयसत्तक्करिसगुणाइएहिं, तेणं "जियो' देव ! ॥१४॥ दारं ५।
[६ वीरणामं] दुदृटुकम्मगंटिप्पवियारणलखलढुसंसद्द! । तवसिरिवरंगणाकलिमसोह, तं तेण 'वीरो'सि ।।१५।।
पढमवयगष्हणदिवसे संकंदणविणयकरणगयताहो । जाओ सि जेण वरमुणि !, अह लेण तुम 'महावीरो'।।१६।।दारं ६।
[७ परमकारुणिमणाम सचराचर जंतुदुहत्तपत्त थुयसत्त ! सत्तु-मित्तेसु ।
करुणरसरंजियमणो, तेण तुम 'परमकारुणियो' 1:१७।। दारं ७। १. जागरसत्त्योत्कृष्टगृणादिकः ।। - -- २. तप.श्रीवराङ्गनाकलितशोमः त्वम् । अथ 'मोह इति विभात्यन् गदं
झेयम् ।। ३. “घुइस" सं० ।।
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बीरस्तुति (११, आप मनोहर एवं अमनोहर शब्दों में अनुरक्त नहीं रहते हो (म+
रहसि) अथवा आपका मन, वचन एवं शरीर परमा/सिद्धान्त में
रमण (रहंत) करता है. इसलिए आप 'बरहत' हो । (१२) देवेन्द्र के द्वारा पूजा के योग्य (अरिह पूजनीय) होने से अथवा
अनुत्तर विमानवासी देवों के सीमा क्षेत्र का भी अतिक्रमण कर लोक के सीमांत अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करने के योग्य (अरिह > योग्य) होने से आप 'अरहंत' हैं।
(४ देव ) (१३) सिद्धि रूपी स्त्री के साथ श्रेष्ठ क्रीड़ा करने वाले, मोह रूपी शत्रु
समूह पर विजय पाने वाले, अनन्त-सुख रूपी पुण्म परिणामों से युक्त होने के कारण आप 'देव' हो ।
(५ जिन ) (१४) अत एवं समाधि-इन दोनों जगत् के उत्कृष्ट गुणों के द्वारा
रागादि शत्रुओं को निलंबित कर पं. कारण हे देव ! आप 'जिन' हैं।
(६ वीर) (१५) दुष्ट अष्टकम रूपी प्रन्थि का विदारण (नाश) करने वाले,
सुन्दर रमणीय भोगों को प्राप्त होने पर भी उनसे विमुख रहने वाले एवं तपलक्ष्मी रूपी श्रेष्ठ स्त्री से शोभायमान होने के
कारण आप 'वीर' हो। (१६) व्रत ग्रहण के प्रथम दिन ही इन्द्रों के द्वारा प्रणाम किये गये और
तृष्णा से रहित हुए हे श्रेष्ठ मुनि ! इस कारण तुम्हें 'महावीर' कहा जाता है।
(७ परमकारुणिक) (१७) दुःखों से पीड़ित संसार के समस्त चर एवं अचर प्राणियों की
भक्तिभावपूर्ण स्तुति से संस्तुत आप शत्रु एवं मित्र सभी के प्रतिकरुण रस से रंजित मन वाले होने से 'परमकारुणिक' हो।
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वीरत्यो
[८ सम्वन्नुणाम]] 'जे भूय-भविस्स-भवंति भाव सदभाव मावणपरेण । नाणेण जेण जाणसि, भन्नसि तं तेण 'सम्वन्नू ॥१८॥ दारं ।
[ सम्वदरिसिणामं] 'ते कसिण'भुयणभवणोयरि विया नियनियस्सस्वेण । सामन्नोऽवलोयसि, तेण तृमं 'सव्वदरिसिति ।।१९। दारं ।
[१० पारगणाम] पार कम्मस्म भवस्स वा वि सुयजलहिणो व नेयस्म । सम्वस्स गओ जेणं, मनसि तं पारगो' तेण ।।२०।। दारं १०।
[११ तिषकालविणामं] पचपन-अणागध-तीयद्धावत्तिणो पयत्था ने । करयलकलियाऽऽमलय' ब्व मुणसि, तिककालविउ'
तेण ॥२१।। दारं ११।
[१२ नाहनाम] 'नाहो' लि 'नाहनाहाण मीम मवगहण मज्यवडियाण ।
उवएसदाणो मग्गनयणो होसि तं बेग ।।२२।। दारं १२ । १. यान् भूत-भविष्यद-भवत: भावान् सद्भावभावनापरेण । ज्ञानेन मेन
जानासि ।। २. 'ते' उपरि अष्टादशगाथावामुक्ता भूत-भविष्यद-भयद्भावाः कृत्स्नमुनन
भवनोदरे स्थिता: निगनिजस्वरूपेण । [नान् ] सामान्यतोऽवलोकसे, तेन
त्वं सर्वदर्शीति ।। ३. 'भुवणभदणोयरष्टिया हं० १० ॥ ४. 'लयं व प्र० ।। ५. नाथ ! अनाथानाम् ।।
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वीरस्तुति
રૂં
( ८ सर्वन)
(१८) आप स्व स्वभाव में रमण करते हुए श्रेष्ठ ज्ञान के द्वारा भूत, भविष्य एवं वर्तमान में होने वाले समस्त भावों को जानते हो, इस कारण आपको 'सर्वज्ञ' कहते हैं ।
(६ सर्वदर्शी )
(१९) आप सम्पूर्ण विश्व के गर्भ में निहित / निज निज स्वरूप में स्थित तत्त्वों पदार्थों के सामान्य स्वरूप का अवलोकन करते हो, इसलिए आप 'सर्वदर्शी' कहे जाते हो।
( १० पारगामी)
(२०) जन्म-मरण रूपी अनेकों भवों और सर्व कर्मों से पार हो जाने के कारण अथवा श्रुत- सागर के तथा सभी ज्ञेय विषयों के ज्ञाता होने के कारण आपको 'पारगामी' कहा जाता है ।
( ११ त्रिकालविश )
(२१) भूत, भविष्य एवं
वर्तमान तीनों कालों के पदार्थों को कर में स्थित आमलक के समान जानने के कारण आपको 'त्रिकालविज्ञ' कहा जाता है ।
(१२ नाथ)
(२२) दुर्लभ्य एवं भयावह संसार समुद्र के मध्य डूबते हुए प्राणियों को सदुपदेश देकर उनका मार्गदर्शन करने से आप अनाथों के नाथ हो, इसलिए आप 'नाथ' कहे जाते हो ।
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४Y
बीरस्थओ
[१३ वीयरायनाम] रागो= रई', सुभेयरबत्थुसु अंतूण पित्तमिणिमेसो । सो राओ, दोसो उण - तम्बिवरोओ मुणयन्यो ।। २३ ।।
सो कमलासण-हरि-हर-दिणपरपमुहाण माणदलणेण। लक्करसो पत्तो जिण ! तुह मूले, तओ तुमए ॥ २४ ॥
जं मलण-दलण-विहलण-कवलणाविम मचिजोगीयो नि । कर-बरण-नयण-कररुह-अहरदकं वसन अणुजं व ॥ २५ ।।
दोसो वि कुडिलकुंतल-भू-पम्हल-नयणतारियमिसेण । गुरु निक्करणं सूपह, तं मन्ने गुणकरे बहुणो ।। २६ ।।
पानि बहुरूवधारी वसंति ते देव ! तुह सरीरम्मि। तस्कयविगाररहिओ तह वि. तुम 'बीय रागो'सि ।।२७॥ दारं १३ ।
[१४ केवलिणाम] जं सम्बदब गज्जवपत्तेयमणंतपरिण इसरूवं । जुगर्व "मुगाइ तिक्कालसंठियं केवलं तमिह ।। २४ ॥
सं ते अप्पडिहयसतिपसरमणवरयमविगलं अस्थि । मुणिणो मुणियपयरया तेण तुमं केवलि बिति ॥२९॥ दारं १४ ।
--.-
. .
.
-..
-- ५. रुई प्र. ।। २. मत्यिजोअजीवो वि . ।। ३. बहिरूब' सं० १०॥ ४. मुणे प्र० है. ॥ ५. 'केवली' होसि में० १० ॥
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बीवस्तुति
(१३ वीतराग) (२३) शुभ वस्तुओं में प्राणी के चित्त का निविष्ट होना राग रति है
और अशुभ वस्तुओं के प्रति विमुखता के भाव को देष कहा जाता
है। ऐसे राग द्वेष से रहित होने के कारण आप वीतराग हैं । (२४) ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, सूर्य आदि प्रमुख देव अपने अहंकार का
विगलन होने पर आपके पाद-मूल में उपस्थित होते हैं फिर भी हे जिन ! आप एक रस अर्थात् निर्षिकार रहते हैं, इसीलिये
आप वीतराग हैं। (२५) जो कमल मदन, दलन, विहलन, प्रसन से युक्त होकर अपना
जीवन जीता है, वही कमल आपके कर, चरण, नयन, नल और
अधर में उपर्युक्त दोषों से रहित होकर निवारः । (२६) कुटिलकुंतल (घुघराले बाल) पक्ष्मल भौहें (घनीभूत भौहें)
तारिका सदश नयन और गुरु का अभाव ये दोष ही हैं फिर भी
ये दोष आपके लिए गुण ही माने जाते हैं। (२५) हे देव । यदि तुम्हारे शरीर में विविध रूप धारण करने वाले देव
भी निवास करते हों तो भी उनके द्वारा किये गये मिकारों से आप रहित हैं, इसलिए आप 'वीतराग' कहे जाते हैं ।
(१४ फेवली) (२४) जो सभी द्रव्यों की अनन्त परिणति रूप त्रिकाल में होने वाली
प्रत्येक पर्याय के स्वरूप को युगपद रूप से जानते हैं, वे 'केवली'
कहे जाते हैं। (२९) आप अपनी अप्रतिहत शक्ति के प्रसार से ज्ञेय पदार्थों को अनवरत
एवं सम्पूर्ण रूप से जानते हैं, इसलिए आप केवली' कहे जाते हैं।
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बौरत्यभी
१५ तिहुयणगुरुणामं ]
पंचेंदिषिणो जे तिहूअणसद्देण तेऽत्य गेज्झति । तेसि सद्धम्मनिओयणेण तं 'तिहयणगुरु 'ति ||३०|| दारं १५ |
[१६ लक्षणाम ] पत्र - सुमेयर जिएस गुरुदुह विलुप्पमाणेसु ।
सध्येसु वि हियकारी तेसु तुमं तेण 'सब्वो' सि ||३१|| दारं १६ |
| १७ तिहूयणवरिणामं ]
बल - विरिय-सत्त- सोहरा-रूव विज्ञाण-नाणपवरो सि । उत्तमपयकयवासो, तेण तुमं 'तिहृयणबरिट्ठो' ||३२|| दारं १७ ॥
[१८ भयवं [त]णामं ]
परिपुनरूवणरथम्म ३ ति४ उज्जम ५ जसाण६भयसना । ते अस्थि अवियला तुम्ह नाह !, तेणासि 'भयवंती' ।। ३३ ।।
इह-परलोयाईयं भयं ति बावत्रयंति सत्तविहं ।
परिवन्तो जिणेस ! तं तेण 'भयवंतो ' ॥ ३४॥ दारं १८ ॥
'भगसंज्ञा'
भगशब्देनोप
ते
१. प्रतिगृर्गरूप- धन - धर्म -कान्ति उद्यम-मशस
लक्षणम् ।।
।
सर्वास्वपि प्रतिषु धम्मपाठस्थाने धन इति इत्येव पाठः सङ्ग इति स एवात्र विहितः तथाहि - ऐश्वर्यम्य समयम्य १ रूपस्य २ ५ प्रयत्नस्य ६पणां भग इतीङ्गना ||" द्विस्वरकाण्डे भगशब्दस्यार्था एवं व्यावणिताः माहात्म्य यशो - वैराग्य-मुक्तिषु । रूप- वीर्य प्रयनेच्छा श्रोधमैश्वर्य-योनिषु।। " इति ॥
३. "लोगाई हं० ॥
४. 'तेन' भयेन १३
पाठो वर्तते, किश्वान घम्म अन्यत्रापि इत्यमेव दृष्यते । शम ३ प्रियः ४ धर्मस्याथ श्री हेमचन्द्रीयाने कार्थ कोशे सन्ति गोरकं ज्ञान
५. सर्वास्वपि प्रतिषु अथ लिपिनान्तिजनितः परिचत्तो इति पाठो दृश्यते, fear परिवन्त इत्येव पाठः साधुः ॥
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घोरस्तुति
(१५ त्रिभुवनगुरु) (३०) त्रिभुवन के संजी पंचेन्द्रिय जीव शब्दों से जिन अर्थों को ग्रहण
करते हैं. उनमें सद्धर्म का विनियोजन करने के कारण आप 'तीनों लोकों के गुरु' हो ।
(१६ सर्व) (३१) भारी दुःखों में विलप्त होते हुए संसार के प्रत्येक सूक्ष्म एवं स्थूल
प्राणी अर्थात् सभी प्राणियों के लिए हितकारी होने के कारण आप 'सम्पूर्ण' हो।
(१७ त्रिभुवनश्रेष्ठ) (३२) बल, बीर्य, सत्त्व, सौभाग्य, रूप, विज्ञान, शान - इन सभी में
श्रेष्ठ तथा उत्तम पद अर्थात् तीर्थकर पद पर वास अर्थात् मधिकार करने से 'विभुवन-श्रेष्ठ' हो।
(१८ भगवत) (३३) हे नाथ ! प्रतिपूर्ण रूप, ऐश्वर्य, धर्म, कांति, पुरुषापं और
यश के कारण आपकी 'भग' संज्ञा अविकल है। इसलिए आप
'भगवन्त' हो। (३४) हे जिनेश्वर ! इहलौकिक एवं पारलौफिक सात प्रकार के भय
को विनष्ट कर देने से अथया उसका परित्याग कर देने के कारण ही आप 'भयवन्त' हैं। [ज्ञातव्य है कि यहाँ भगवंत के प्राकृत रूप भयवन्त की भय है 'वान्त' जिसका, ऐसी व्याख्या की गयी है]
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४८
areena
[१६ तित्यमरणाम ]
तित्थं चउविसंघो "पढमो च्चिय गणहरोऽहवा तित्यं । ततित्थकरण सीलो तं सि तुमं तेग 'तित्थयरो' ।। ३५ ।। दारं १९ ।
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२०
पायें
एवं गुणगण सक्कस्स कुणइ सबको वि किमिह अच्छरियं । अभिवंदणं जिणेसर ! ? तो 'सक्कऽभिवंदिय ! नमो ते
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[२१ जिणिदणा]
मणपज्जवोहि उवसंत खीणमोहा जिण नि भन्नंति । ताणं चिय तं इंदो परमिसरिया 'जिणिदो' त्ति ||३७|| दारं २१ ।
||३६|| दारं २०
[२२ श्रद्धभाणणामं ]
सिरिद्धिरथन रेसर गिम्मि घण-कणम देस को सेहिं ।
वदेसि तं जिणेसर !, तेण तुमं 'वद्धमाणो 'सि ||३८|| दारं २२ |
| २३ हरिणाम ]
"हरि सि तुमं कमलालय ! करयलगय संख-चक्क सारंगी । दाणवरसोति जिणवर !, तेण तुमं भन्न से 'विष्णू' ।। ३९ ।।
दार २३ ।
१. पढमु प्र० ० ॥ २. तो प्र० ।।
३. हरसि खमं सं० हं ॥
४. बरिसुति प्र० हुं० ॥
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वीरस्तुति (१६ तीर्थंकर)
(३५) चतुविध संघ रूपी तीर्थं अथवा प्रथम गणधर रूप तीर्थ की संस्थापना करने के कारण आप 'तीर्थंकर' कहे जाते हो ।
२० शान्ति)
(३६) इसी प्रकार गुणों के समूह से युक्त होने के कारण इन्द्र भी आपका अभिवन्दन करता है, इसमें आश्चयं ही क्या है ? 'चक्राभिवन्दित' जिनेश्वर ! बापको नमस्कार हो ।
(२१ जिनेा)
( ३७ ) मनः पर्यायज्ञान और अवधिज्ञान से युक्त एवं उपशान्त मोह अपवा क्षीण मोह गुणस्थानों के धारक व्यक्ति 'जिन' कहे जाते हैं। उनकी अपेक्षा भी अधिक आध्यात्मिक ऐश्वर्ययुक्त होने से आप उनके इन्द्र (स्वामी) हैं। इसलिए आप 'जिनेन्द्र' कहे जाते हो ।
(२२ वर्षमान)
(३८) हे जिनेश्वर ! आपके (गर्भ में आने से श्री सिद्धार्थ राजा के घर में वैभव, स्वर्ण, जनपद एवं कोष में वृद्धि हुई। इस कारण आप 'वर्धमान' हो ।
(२३ हरि)
(३९) हे कमलालय (लक्ष्मी निधान) ! आपके करतल अर्थात् हथेली में शंख, चक्र, धनुष के चिह्न होने से एवं दान की वर्षा करने से अथवा वर्षीदान देने के कारण हे जिनेश्वर ! आप 'हरि' (विष्णु) कहे जाते हैं ।
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गौरत्पओ
[२४ हरणाम) हरसि रयं जतणं बझं अस्मितरं, न खटॅगं । उस नीलकंसफातिमो, हो न तह नि:४०|| दार २४ ।
[२५ कमलासपणाम] कमलासणो वि, जेणं दाणाईच उधम्मचउवयणी। हंसगमणो' य गमणे, तेण तुमं भनसे 'बंभो' II४१।१ दारं २५ ।
[२६ बुद्धणामं] बुद्धं अवगय मेगद्वियं ति, जीवाइतत्त'सविसेस । वरविमलकेवलामो, तेण तुमं मनसे 'बुद्धो' IVRI वारं २६ ।
इस नामावलिसंथुम ! सिरिवीरजिणिद ! मंदपुनस्स । वियर करुणा जिणवर ! सिवपयमणहं थिरं वीर ! ॥४३॥
| 'वीरत्यत्रो 'समत्तो॥
१. 'गमणं व गमणी प्रल । 'गमणो उ गमणे ६० ।। २. 'तमबसेमं सर्वामु प्रतिषु ॥ ३. दीरस्तव प्रकीर्णकम् प्र० ॥ ४. सम्मत्तो इति प्र.९० नारित । सम्मत्ती ॥ १०॥ २० ॥
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वीरस्तुति
(२४ महादेव (४०) हे प्रभु थाप न तो खट्वाङ्ग (शिव का आयुघ) को धारण करते
हो और न ही 'नीलकण्ठ' हो फिर भी प्राणियों के बाह्य एवं आभ्यन्तर फर्म रूपी रज का हरण करते हो, इसलिए आप 'हर' (शिव) कहे जाते हो ।
(२५ ब्रह्मा) (४१) जिनका कमलों का आसन है, आप दानादि धर्म रूपी चार
मुखों से युक्त हैं अथवा समवसरण में चतुर्मख प्रतीत होते हैं। आपका हंस भयवा संन्यास की श्रेष्ठतम अवस्था में गमन होता है । इस कारण आप 'ब्रह्मा' कहे जाते हैं।
(२६ त्रिकालविज्ञ) (४२) माप श्रेष्ठ एवं निर्मल केवलज्ञान के द्वारा जीवादि तत्त्वों की
विशिष्ट पर्यायों को एक ही साथ जानने के कारण 'बुद्ध'
कहे जाते हैं। (४३) इस प्रकार मेरे द्वारा श्री वीर जिनेन्द्र की यह नामावली संस्तुत
की गयी। हे जिनेश्वर महावीर ! करुणा करके आप मुश मन्द पुण्य को शाश्वत निर्दोष शिव पद प्रदान करें।
(बोरस्तव समाप्त)
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गापा
१. परिशिष्ट
वीरस्तव प्रकीर्णक की गाथानुक्रमणिका
क्रमांक
प्र
अमर-नर-असुवरपहु अरिहा जोगा पूया अरु ! अरिहंत ! अरहंत 1
इ
नामावलिसंधु ! छह्-पारलोयाईयं
एवं गुणगणस्करा
क
कमलासनो विजे
घ
घोरुवसम्म परीग्रह
ज
मईवि बहुरुवधारी
जय वीराय | केवल 1
जं मण-दल-बिहण
जं सव्त्र द्रव्य पज्जव
जे भूय भविस्रा भवंति
त
तं ते अपवित तित्यं चविहसंधो
८
१२
२
*४३
३४
३६
६
૭
국
२५
२८
१८
गाथा
तं कसिण भुणभवणोरि
प
पच्चुप्पन्न - अणागय
४१ पडिपुष्प स्वघणे धम्म
मगहण दिवसे
२९
३५
व दृट्टट्ठकम्मठि दोसो वि कुडिल कुंतल
न
नमिकण जिर्ण जय जीव
न रहसि सद्दाहमणो हरेस
'नाही' वाहाण
एतेयर सुमेयर
पंवेदिय सत्रिणी जे
पारं कम्मस्स भयस्स
य
बम विरिय सप्त-सोहन
बुद्ध अवगयमेगट्टियं
भ
भवीकुरभूयं
म
मणपज्जव बोहि उवसंत
क्रमांक
१९
१५
२६
1
११
२२
२१
३३
१६
३१
३०
२०
३२
४२
३७
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वीरस्तव प्रकीर्णक की गाथानुक्रमणिका
क्रमांक
गाया
T
रहमती, अंत रहूगड़ह सेससंगह गाइयेरिनिविकत
रागो = रई, सुमेपर
य
वेद-धुगण नर्मसण
सं
सचराचरजंतुदुयत्त
९
१४
२३
गाया
सिद्धिबहुसंगकीला सिरिषद्धमाण हरिहर
सिरिसिद्धत्थनरेसर
सोमास हरिहर
ह
हरसि एवं जंतूणं १७ हरि सि तुमं कमलालय !
७
क्रमांक
१३
Y
३८
२४
४०
३९
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२. परिशिष्ट
. महायक गन्ध सूची ,
(१) अणगार धर्मामृत : पं० आशाधर (२) अर्धमागधी कोश : भाग १-५, प. रस्मचन्द्र जी म. सा-अमर
पब्लिकेशन्स, वाराणसी (३) अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग १-७, श्री विजय राजेन्द्र मूरिरतलाम (४) आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन-मुनि नगराज (५) जन लक्षणायली : भाग-१-३, बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री-बीर सेवामन्दिर,
दिल्ली (६) जैनेन्द्र सिंज्ञानकोश : भाग १-४, जिनेन्द्रवर्णी भारतीय ज्ञानपीठ-दिल्ली (७) जिनसहस्त्रनाम : १. आशाधर, भारतीय ज्ञानपीठ-दिल्ली (८) जिनमहस्त्रनाम स्तोत्र : विनमविजय जी, श्री जैन धर्म प्रसारक समा
भावनगर (९) जैन स्तोत्र संग्रह : भाग १, २ : सोमसुन्दर सूरि । (90) जैन स्तोत्र संयोह : सम्पादक--मुनिश्री चलुरविजय जी (११) जन स्तुति संग्रह : महालचन्द्र ववेद (१२) जैन स्तुति संग्रह : डूगरशी (१३) देवेन्दस्तव प्रकीर्णक : डा० सुभाष कोठारी, आगम संस्थान, उदयपुर (१४) नन्दीसूत्र : मुनिमधुकर-नागम प्रकाशन समिति, व्यावर (१५) प्राकृत भाषा एवं माहित्य का आलोचनात्मक इतिहास नेमिचन्द्र शास्त्री (१६) पाइअसहमहण्णवो : प. हरगोविन्ददास-प्राकृत टेक्टस् सोसायटी,
वाराणसी (१७) पइण्णय मुताई : भाग १, २ मुनिपुपपविजयजी-महावीर जैन विद्यालय,
बम्बई (१८) महावीर चरित मीमांसा : १० दलसुख मालयणि या-अहमदाबाद (१९) वोर स्तुति : मुनि रामकृष्ण-चाबड़ी बाजार-दिल्ली (२०) वीर स्तक : जिनप्रभाचार्य
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________________ सहायक ग्रन्थसूची (21) वीरस्तवनम् : मूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री (22) रस्तुति : पुष्प भिक्खु (23) वीरस्तुति : सं० अमरचन्द जी म. सा (24) मागर जैन विद्या भारती . डा मागरमन जैन, वाराणसी 125) सुमाग - मुग - -अगम काम समिति-व्यावर (26) मूत्रकृतांगनियुक्ति : नियुक्तिसंग्रह. हर्षपुष्पामृत प्रन्थमाला-सौराष्ट्र (27) श्रमणः त्रैमासिक-अप्रल 1982, पास्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी