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________________ ३ वीरस्यो "लोक्य-कालत्रयवर्ति द्रव्यपर्यायसहितं वस्त्वलोकं च जानातीति । सर्व वेत्तीति । अर्थात् त्रिलोक त्रिकालवी सयंदव्य पर्यात्मक वस्तु स्वरूप को जानने वाले होने के कारण आप सर्वश हो । [४] यहीं पर सर्व चराचर जगत् को देखने वाले होने के कारण "सर्वदर्शी' नाम दिया गया है। [५] 'केवलो' केवल शान के धारक होने से मुनिजनों द्वारा आपको ऐवली हा जाता है। [६] 'भगवान' 'भग' शब्द ऐश्वर्य, परिपूर्ण ज्ञान, तप, लक्ष्मी, वैराग्य एवं मोक्ष इन छ: अर्थों का बाचक है और आप इन छहों से संयुक्त हैं अतः आप भगवान है | [७] महन्, अरिहंत, अरहत जिनसहस्रनाम में इन तीनों को एक ही मानकर कहा गया है कि आप दूसरों में नही पायी जाने वाली पूजा के योग्य होने से अहन है । अकार से मोह रूप अरिका, रकार से ज्ञानावरण एवं दर्शानावरण रूप रज का तथा रहस्य अर्यात अन्तराय कर्म का ग्रहण किया है । हे भगवान! आपने इन चारों ही धातिया कर्मो का हनन किया है इस कारण आप अहण, अरिहंत और अरहंत इन नामों से पुकारे जाते हैं। [८] 'तीयंकर' जिसके द्वारा संसार सागर से पार उतरते हैं उसे तीर्थ कहते हैं। जगत् के प्राणी आपके द्वारा प्ररूपित बारह अंगों का आश्रय लेकर भव को पार होते हैं। आप इस प्रकार के तीर्थ के करने वाले हैं इसलिए आपको तीर्थकर कहा जाता है | २. जिनसहरनाम शतक-२, पृष्ठ ६५ ॥ ३. वहीं, शतक-२, पृष्ठ ६१ ।। ४. वहीं, शतक-२, पृष्ठ ६८ ॥ ५. 'भगो ज्ञान परिगणैश्वर्य नपः श्रीराग्यं मोक्षश्न विद्यते यम्म स तथोक्त" (जिनसहस्रनाम, शतक ३, पृ०७०) ६. बिनमहलनाम, पातक ३ पृष्ठ ७० । ५. वही, पातका ४, पृ० ७८ ।
SR No.090540
Book TitleAgam 33 Prakirnak 10 Viratthao Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Sagarmal Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size789 KB
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