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वीरस्तुति
(२४ महादेव (४०) हे प्रभु थाप न तो खट्वाङ्ग (शिव का आयुघ) को धारण करते
हो और न ही 'नीलकण्ठ' हो फिर भी प्राणियों के बाह्य एवं आभ्यन्तर फर्म रूपी रज का हरण करते हो, इसलिए आप 'हर' (शिव) कहे जाते हो ।
(२५ ब्रह्मा) (४१) जिनका कमलों का आसन है, आप दानादि धर्म रूपी चार
मुखों से युक्त हैं अथवा समवसरण में चतुर्मख प्रतीत होते हैं। आपका हंस भयवा संन्यास की श्रेष्ठतम अवस्था में गमन होता है । इस कारण आप 'ब्रह्मा' कहे जाते हैं।
(२६ त्रिकालविज्ञ) (४२) माप श्रेष्ठ एवं निर्मल केवलज्ञान के द्वारा जीवादि तत्त्वों की
विशिष्ट पर्यायों को एक ही साथ जानने के कारण 'बुद्ध'
कहे जाते हैं। (४३) इस प्रकार मेरे द्वारा श्री वीर जिनेन्द्र की यह नामावली संस्तुत
की गयी। हे जिनेश्वर महावीर ! करुणा करके आप मुश मन्द पुण्य को शाश्वत निर्दोष शिव पद प्रदान करें।
(बोरस्तव समाप्त)