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वीरथी
-निरयावलका
-संलेखणाश्रत -कल्पिका
-विहारकल्प ---कल्पावतंसिका
---चरणविधि --पुष्पिका
–मासुरप्रत्याख्यान --पुष्पचूलिका
-महाप्रत्याख्यान --वृष्णिदशा
इस प्रकार हम देखते हैं कि नन्दीसूत्र में प्रकीर्णकों का उल्लेख अंगबाह्म, आवश्यक व्यतिरिक्त, कालिक एवं उत्कालिक आगमों में हुआ है। पाक्षिक सूत्र में भी आगमों के वर्गीकरण की यही बोली अपनायी गयी है। इसके अतिरिक्त आगमों के वर्गीकरण की एक प्राचीन शैली हमें यापनीय परम्पग के शौरसेनी आगम ' मलाचार' में भी मिलती है। मलाचार आगमों को चार भागों में वर्गीकृत करता है(१) तीर्थंकर-कथित (२) प्रत्येक-बुद्ध मथित (३) श्रुतकेवली -कथित (४) पूर्वधर कथित । पुनः मुलाचारी इन आगमिक ग्रन्धों का कालिक और उकालिक के रूप म वगीकरण किया गया है। इस प्रकार अद्धमागधी और शौरसेनी दोनों ही आगम परम्पराए' कालिक एवं उस्कालिक सूत्रों के रूप में प्रकीर्णकों का उल्लेख करती हैं। प्रकीर्णक
वर्तमान में आगमों के अंग, आंग, छंद, मनसूत्र, प्रकीर्णक आदि विभाग किये जाते हैं । यह विभागीकरण हमें सर्वप्रथम विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ-१४वीं शताब्दी) में प्राप्त होता है । सामान्यतया प्रकीर्णक का भर्थ विविध विषयों पर सकलित ग्रन्थ ही किया जाता है। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है कि तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट वृत का अनुमरण करके श्रम प्रकीर्णकों की रचना करते थे। परम्परानुसार यह भी मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण एक-एक प्रकीर्णकों की रचना करते थे ।
जैन पारिभाषिक दृष्टि से प्रकीर्णक उन ग्रन्थों को कहा जाता है जो तीर्थंकरों के शिष्य उद्घत्ता श्रमणों द्वारा आध्यात्म-सम्बद्ध
१. मुलावार -भारतीय ज्ञान, गाना, २७५ २. विधिमार्गप्रया-पृष्ठ ५५ ।