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बीरस्तुति (११, आप मनोहर एवं अमनोहर शब्दों में अनुरक्त नहीं रहते हो (म+
रहसि) अथवा आपका मन, वचन एवं शरीर परमा/सिद्धान्त में
रमण (रहंत) करता है. इसलिए आप 'बरहत' हो । (१२) देवेन्द्र के द्वारा पूजा के योग्य (अरिह पूजनीय) होने से अथवा
अनुत्तर विमानवासी देवों के सीमा क्षेत्र का भी अतिक्रमण कर लोक के सीमांत अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करने के योग्य (अरिह > योग्य) होने से आप 'अरहंत' हैं।
(४ देव ) (१३) सिद्धि रूपी स्त्री के साथ श्रेष्ठ क्रीड़ा करने वाले, मोह रूपी शत्रु
समूह पर विजय पाने वाले, अनन्त-सुख रूपी पुण्म परिणामों से युक्त होने के कारण आप 'देव' हो ।
(५ जिन ) (१४) अत एवं समाधि-इन दोनों जगत् के उत्कृष्ट गुणों के द्वारा
रागादि शत्रुओं को निलंबित कर पं. कारण हे देव ! आप 'जिन' हैं।
(६ वीर) (१५) दुष्ट अष्टकम रूपी प्रन्थि का विदारण (नाश) करने वाले,
सुन्दर रमणीय भोगों को प्राप्त होने पर भी उनसे विमुख रहने वाले एवं तपलक्ष्मी रूपी श्रेष्ठ स्त्री से शोभायमान होने के
कारण आप 'वीर' हो। (१६) व्रत ग्रहण के प्रथम दिन ही इन्द्रों के द्वारा प्रणाम किये गये और
तृष्णा से रहित हुए हे श्रेष्ठ मुनि ! इस कारण तुम्हें 'महावीर' कहा जाता है।
(७ परमकारुणिक) (१७) दुःखों से पीड़ित संसार के समस्त चर एवं अचर प्राणियों की
भक्तिभावपूर्ण स्तुति से संस्तुत आप शत्रु एवं मित्र सभी के प्रतिकरुण रस से रंजित मन वाले होने से 'परमकारुणिक' हो।