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भूमिका
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मान्यता रही है कि तीर्थंकर तो वीतरागी होते हैं अतः वे न तो किसी का हित करते हैं, न अहित, वे लो मात्र कल्याणपथ के प्रदर्शक है । लोगस्स के पाठ को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ सहवर्ती हिन्दु परम्परा से प्रभावित है। लोगस्स में बारोग्य, बोधि एवं निर्वाण इन तीनों बातों की कामना की गयी है जिसमें अरोग्य, का सम्बन्ध बहुत कुछ हमारे ऐहिक जीवन के कल्याण के साथ जुड़ा हुआ है । परन्तु चाहे वह इस लोक के कल्याण हेतु कामना हो या पारलौकिक कल्याण की कामना. धीरे-धीरे परवर्ती समय में यह तत्त्व जैन रचनाओं में प्रविष्ट होता गया जो जैन दर्शन के मूल सिद्धान्त वीतरागता की अवधारणा से संगति नहीं रखता है। जैन दर्शन में स्तुति का क्या स्थान हो सकता है इसको चर्चा आचार्य ! समन्तभद्र ने अपने स्वयम्भू स्तोत्र में की हैं। वे लिखते हैं कि हे प्रभु आप वीतराग है अतः आपकी स्तुति से आप प्रसन्न नहीं होंगे और लाप वीद्वेष हैं अतः निन्दा से नाराज नहीं होंगे फिर भी मैं आपकी स्तुति इसलिये करता हूँ कि इससे चित्त मल की विशुद्धि होती है ।
सन्दर्भ में आगे चलकर यह माना जाने लगा कि तीर्थंकर की भक्ति से उनके शासन के यक्ष-यक्षी (शासन देवता) प्रसन्न होकर भक्त का कल्याण करते हैं तो लोगों में शासन देवता के रूप में यक्ष एवं यक्षी की भक्ति की अवधारणा का विकास होने लगा और उनकी भी स्तुति की जाने लगी । "उग्गहर" प्राकृत का सबसे पहला तीर्थंकर के साथ-साथ उनके शासन के यक्ष को स्तुति करने वाला स्तोत्र है । इस स्तोत्र के कर्ता वाराहमिहिर के भाई द्वितीय भद्रबाहू (ईसा की छठीं शती) को माना जाता है ।
इसके पश्चात् प्राकृत संस्कृत और आगे चलकर मरु-गुर्जर में अनेक स्तोत्र बने, जिनमें ऐहिक सुख-सम्पदा प्रदान करने की भी कामना की गयी । यह सब चर्चा हमने सिर्फ स्तुतिपरक माहित्य के विकासक्रम पर दष्टिपात करने के उद्देश्य से की है कि स्तुतियों का किस क्रम से किस रूप में विकास हुआ । वीरस्तव भी ऐसा ही एक स्तुतिपरक ग्रन्थ है ।
१. स्वयम्भुस्तोत्र - ५७
२. उवसग्गहर स्नांत्र - गाथा १ - ९ ।।
३. देवेन्द्रस्तव भूमिका - पृष्ठ १५ ।।