________________
वीरस्तव प्रकीर्णक की विषयवस्तु एवं नामों का जेन
आगमो एवं अन्य स्तुतिपरक ग्रन्थों में विस्तार वीरस्तव प्रकीर्णक में प्राप्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि उसमें महावीर के २६ नामों से स्तुति की गयी है । स्तुतिपरक साहित्य के विकासक्रम में आगे चलकर गुणसूचक विभिन्न पर्यायवाची नामों के अर्थ की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या करते हुए उसके न्याज से स्तुति करने की एक परम्परा ही चली। इस शैली में जिनसहस्रनाम, विष्णसहस्रनाम, शिवसहस्रनाम आदि रचनाएं निर्मित हुई । प्रस्तुत प्रकीर्णक इस शैली का प्रारम्भिक ग्रन्थ है।
वीरस्तव में प्रतिपादित नामों में से अनेक नाम आचारांग, सत्र. कृतांग, भगवनीसूत्र, शाताघमंकथांग, उपासक दशांग, अनुत्तरोपपातिकदशा आदि आगम ग्रन्थों में तथा जिनसहस्रनाम, अहंतसहस्रनाम, ललितविस्तरा आदि परवर्ती जैन ग्रन्थों एवं विष्णपुराण, शिवपुराण, गणेशपुराण आदि जैनेतर नन्थों में किञ्चित् भेद से प्राप्त होते हैं।
वीरस्तव में महावीर के जो २६ गुण निष्पन्न नाम गिनाए गये हैं उनमें से अनेक नाम अपनी प्राचीनता की दष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
प्रारम्भिक काल में प्ररहंत, अहंत, बुद्ध, जिन, वीर, महावीर आदि शब्द विशिष्ट ज्ञानियों महापुरुषों के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते थे। परन्तु धीरे धीरे ये शब्द केवल श्रमण परम्परा के विशिष्ट शब्द बन गये। पं० दलसुख भाई मालवणिया लिखते हैं कि अरिहंत एवं महंत शब्द भगवान् बुद्ध एवं महावीर के पहले ब्राह्मणा परम्परा में भी प्रयुक्त होते थे परन्तु भगवान बुद्ध एवं महावीर के पश्चात् ये दोनों शब्द केवल इन्हीं के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होने लगे । ज्ञानी जनों के लिए 'बद्ध' मान्द प्रचलन में था परन्तु बद्ध के बाद यह शब्द भी उनके ही विशेषण के रूप में प्रचलन में आ गया।
'जिन' शब्द भगवान महावीर के पूर्व सभी इन्द्रिय विजेता साधकों के लिए प्रयोग होता था परन्तु बाद में जिन शब्द जैनधर्म के तीर्थंकरों के विशेषणरूप से प्रयोग होने लगा और इनके अनुयायियों के लिए जैन शब्द प्रचलित हो गया। १. आचारांग ।।१२