Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 15
________________ प्रियदर्शिनी टीका अ. १५ गा. २ भिक्षुगुणप्रतिपादनम् विहारितया विहरेत् । य एवंविधः स भिक्षुरुच्यते । अनेन सिंहतया निष्क्रम्य सिंहतया विहरणं भिक्षुतानिमित्तमुक्तं साधूनाम् । चतुर्भङ्गी यथा (१) सिंहत्ताए निक्खमंति सिंहत्ताए विहरंति । (२) सिंहत्ताए निक्खमंति सियालत्ताए विहरंति । (३) सियालत्ताए निक्खमंति सिंहत्ताए विहरति । (४) सियालत्ताए निक्खमंति सियालत्ताए विहरति । एषु सिंहतया निष्क्रम्य सिंहतया विहरणं सर्वोत्तमम् ॥ १ ॥ सिंहतया विहरणमेव विशेषतः माहमूलम्-राओवरयंचरेज लोढे, विरेए वेदवियाऽऽयरखिए । पन्न अभिभूय सबंदंसी, जे कम्हिंवि ने मुच्छिंए से भिक्खू ॥२॥ छाया-रागोपरतं चरेत् लाढः, विरतो वेदविदात्मरक्षितः । प्राज्ञः अभिभूय सर्वदर्शी, यः कस्मिन्नपि न मूछितः स भिक्षुः ॥२॥ टीका-'राओवरयं' इत्यादि । लाढः सदनुष्ठाने तत्परः, 'लाढ' इति देशीयशब्दः, विरतः=आस्रवान्निकरता हुआ (परिव्वए-परिव्रजेत्) अनियत विहारी होता है-(स भिक्खू-स भिक्षुः) वही भिक्षु है। भावार्थ-इन पूर्वोक्त गुणविशिष्ट आत्मा ही भिक्षु है। इससे यहां साधुओं की भिक्षुता की निमित्तभूत चौभंगी प्रकट की जाती है। जैसे-१ सिंहताए निक्खमंति सिंहत्ताए विहरंति । २ सिंहत्ताए निमंति सियालत्ताए विहरंति । ३ सियालत्ताए निक्खमंति सिंहत्ताए विहरंति। ४ सियालत्ताए निक्खमंति सियालत्ताए विहरति । ४॥ इन चार भंगो में सिंहवृत्ति से निकलकर सिंहवृत्ति से ही विचरना यह प्रथम भंग सर्वोत्तम है ॥१॥ मा माडा२ महिनी गवेषणा ४२ai Rai परिव्वए-परिव्रजेत् अनियत विडारी मने छ स भिक्खू-स भिक्षुः ते४ मिनु छे. ભાવાર્થ-આવા પૂર્વોક્ત ગુણ વિશિષ્ટ આત્મા જ ભિક્ષુ છે આથી જ અહીં સાધુઓની ભિક્ષપણાની નિમિત્તભૂત ચૌભંગી પ્રગટ કરવામાં આવે છે–જેમ (१) सिंहत्ताए निक्खमंति सिंहत्ताए विहरंति (२) सिंहत्ताए निक्खमंति सियालत्ताए विहरंति (3) सियालत्ताए निक्खमंति सिंहत्ताए विहरंती. (४) सियालत्ताए निक्खमंति सियालत्ताए विहरंति मा यार भागमा सित्तिथी निजीने सिंવૃતિથી જ વિચરવું એ પ્રથમ ભંગ સર્વોત્તમ છે. ૧. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૩

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