Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Panhavagarnaim Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 76
________________ तइयं अज्झयण (तइयं आसवदार) निबंधंति निरयवत्तिणि', भवप्पवंचकरण-पणोल्लि', पुणोवि 'संसार-णेमे" धम्मसुति-विवज्जिया अणज्जा कूरा मिच्छत्तसुति-पवण्णा य होंति एगंतदंडरुइणो, वेढेता कोसिकारकोडो व्व अप्पगं अट्ठकम्मतंतु-धणबंधणेणं ।। २३. एवं नरग-तिरिय-नर-अमर-गमणपेरंतचक्कवालं जम्मणजरमरणकरण' गंभीरदुक्ख-पखुभियपउरसलिलं संजोगवियोगवीची'-चितापसंगपसरिय-वहबंधमहल्लविपुलकल्लोल-कलुणविलवित-लोभकलकलितवोलवहुलं अवमाणणफेणतिव्वखिसण-पुलंपुलप्पभूयरोगवेयण-पराभवविणिवात--फरुसरिसणसमावडियकढिणकम्मपत्थर - तरंगरंगत - निच्चमच्चुभय - तोयपटुं कसायपायाल-संकुलं भवसयसहस्सजलसंचयं अणंतं उब्वेयणयं अणोरपारं महब्भयं भयंकरं पइभयं अपरिमिय महिच्छ-कलुसमतिवाउवेगउद्धम्ममाण- प्रासापिवासपायाल-कामरतिरागदोसवंधण-बहुविहसंकप्पविपुलदगरयरयंधकार, मोहमहावत्तभोगभममाणगुप्पमाणुब्बलंतबहुगम्भवास - पच्चोणियत्तपाणिय - पधावितवसणसमावण्ण'रुण्णचडमाख्यसमाहयाऽमणुण्णवीचोदाकुलित - भंगफुट्टतनिट्ठकल्लोलसंकुलजल, पमायबहुचंडमुटुसावयसमाहय'-उठायमाणगपूरघोरविद्धसणत्थबहुलं, अण्णाणभमतमच्छपरिहत्थ - अनिहुतिदियमहामगरतुरियचरियखोखुब्भमाण - संतावनिच्चय - चलतचवलचंचल-अत्ताणाऽस रणपुवकयकम्मसंचयोदिण्णवज्जवेइज्जमाण-दुहसयविपाकघुण्णंतजलसमूह, इड्डिरससायगारवोहारगहियकम्मपडिबद्धसत्त- कडिज्जमाणनिरयतलहत्तसण्ण विसण्णबहुल, अरइरइभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसकडं, अणातिसंताणकम्मबंधणकिले सचिखल्लसुदुत्तार, अमरनरतिरियनिरयगतिगमणकुडिलपरियत्तविपुलवेलं, हिंसालय - अदत्तादाण - मेहणपरिग्गहारंभ-करणकारावणाणुमोदण-अट्ठाविहणिट्ठकपिडित-गुरुभारोक्कतदुग्गजलोघदूरणिवोलिज्जमाण -उम्मग्गनिमग्गदुल्लभतलं, सारीरमणोमयाणि १. ०वत्तणि (ख, ग, घ, च)। त्ययादिति'-वृत्तिकृता विवरणमिदं व्याख्या२. पणोल्लि-प्रणोदीनि, अत्र द्वितीयाबहुवचन- गतमूलपदमाश्रित्य कृतम् । लोपो दृश्यः (व)। ४. जम्मजरा (ग, च)। ३. संसारणेममूले (क, ख, घ); संसारावत्त- ५. वीई (क); वीति (ख, घ) । णेममूले (ग, च): वृत्तिकृता 'नेम त्ति मूलं' ६. पबाहिय ° (वृपा)। इति व्याख्यातम् । अनेन ज्ञायते मूलमिति ७. पवात (क); पम्मात (ख, ग, घ)। पदं व्याख्यानमस्ति, न तु मूलपाठाङ्गम् । ८. ° वेज्जमाण (ख, वृ)। उत्तरकालीनादर्शपु अस्य पदस्य मूलपाठे ६. गारवापहार (ख)। समावेशी जातः। 'इह च मूलाइति वाच्ये १०. अदत्तदाण (क, ख, ग, घ)। मूल इत्युक्त प्राकृतत्वेन लिङ्गव्य- ११. ° पोलिज्जमाण (क, ग)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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