Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तीर्थकरों के नहीं। जैन परम्परा में और वैदिक परम्परा में यह महत्त्वपूर्ण अन्तर है कि एक ने अर्थ को प्रधानता दी है तो दूसरे ने शब्द को प्रधानता दी है। यही कारण है कि वैदिक परम्परा में वेद के नाम पर विभिन्न चिन्तनधाराएँ विकसित हुई हैं। विभिन्न दार्शनिक जीव, जगत् और ईश्वर को लेकर पृथक्-पृथक् व्याख्याएं करते रहे हैं / वेद सभी को मान्य हैं, किन्तु वेदों की व्याख्या में एकरूपता नहीं है। जैन परम्परा में बैदिक परम्परा की तरह संप्रदायभेद नहीं है। जो श्वेतांबर, दिगबर या अन्य उपसंप्रदाय हैं उनमें विचारों का मतभेद प्रमुख नहीं, अपितु प्राचार का भेद प्रमुख है। यह सत्य है कि श्वेताम्बरमान्य प्रागमों को दिगम्बर मान्य नहीं करते हैं, पर दिगंबर साहित्य में अंग साहित्य के नाम ज्यों के त्यों मिलते हैं, किन्तु वे उन्हें विच्छिन्न मानते हैं / यह पूर्ण सत्य है कि श्वेतांबर और दिगंबरों के मूल-भूत तत्त्वों में किंचित मात्र भी अन्तर नहीं है। षट द्रव्य. नौ तत्व, प्रमाण, नय, निक्षेप, कर्म प्रादि दोनों ही परम्परामों में एक सदृश है। जैन आगम के उद्गाता तीर्थकर हैं जिन्होंने स्वयं भौतिक वैभव को ठुकराकर साधना के पथ पर अपने सुदृढ कदम बढ़ाये थे। इसलिए उन्होंने सभी को उस पथ पर बढ़ने की पवित्र प्रेरणा दी। उन्होंने स्वर्ग के रंगीन सुखों को नहीं किन्तु मोक्ष के अनन्त आनन्द को प्रधानता दी और मोक्षमार्ग की बहुत ही विस्तार चर्चा की, जब कि वेदों में भौतिक वैभव को प्राप्त करने को कामना और भावना प्रमुख रही है और इसी के लिए प्रार्थनाएँ की जाती रही हैं / यहाँ पर यह बात स्पष्ट करना प्रावश्यक है कि जैन आगमों में प्राध्यात्मिक चिन्तन की प्रमुखता तो है ही, साथ ही उस युग में प्रचलित अनेक ज्ञान-विज्ञानों का अपूर्व संकलन भी उनमें है / जीवविज्ञान के सम्बन्ध में जितना विस्तार के साथ जैन आगमों में निरूपण हुम्रा है उतना अन्यत्र मिलना कठिन है / आगमों में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के सम्बन्ध में गहराई से विश्लेषण किया गया है। उस युग की धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिस्थितियों का जो चित्रण है, वह जैन परम्परा के अभ्यासियों के लिए ही नहीं अपितु मानवीय संस्कृति के अध्येताओं के लिए भी अत्यन्त उपयोगी है। पाश्चात्य और पौर्वात्य अनुसंधानकर्ता भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति का मूल वेदों में निहारते थे, पर मोहनजोदडो हडप्पा के ध्वंसावशेषों में प्राप्त सामग्री के पश्चात् चिन्तकों को चिन्तन-दिशा ही बदल गई है और अब यह प्रमाणित हो चुका है कि श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृति से पृथक् है। वैदिक संस्कृति में ईश्वर को सृष्टि का निर्माता माना है, जबकि श्रमणपरम्परा ने विश्व की संरचना में जड़ और चेतन इन दोनों को प्रधानता दी है। जड और चेतन ये दोनों तत्त्व ही सृष्टि के मूल कारण हैं। सृष्टि की कोई प्रादि नहीं है, वह तो अनादि है। चक्र की तरह वह सदा चलती रहती है। व्रत निरूपण संसारचक्र से मक्त होने के लिए किया गया है। जबकि वेदों में व्रतों का जिस रूप में चाहिए उस रूप में निरूपण नहीं है। श्रमण संस्कृति का दिव्य प्रभाव जब द्रुत गति से बढ़ने लगा तब उपनिषदों में और उसके पश्चाद्वर्ती वैदिक साहित्य में भी व्रतों के सम्बन्ध में चर्चाएँ होने लगीं / संक्षेप में सारांश यह है कि जैन मागम वेदों पर प्राधत नहीं है। वे सर्वथा स्वतंत्र हैं। पूर्व पंक्तियों में हम यह लिख चुके हैं कि तीर्थकर अर्थ के रूप में प्रवचन करते हैं / जब जैसा प्रसंग प्राता है, उस रूप में वे प्ररूपणा करते हैं। अर्थात्मक दृष्टि से किये गये उपदेशों को उनके प्रमुख शिष्य सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org