Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
आ०. आत्मारंभी णो० नहीं परारंभी मो० नहीं उ० उभयारंभी अ० अनारंभी से वह के० कीसतरह ए० ऐसा वु० कहा अ० कितनेक जी० जीव आ० आत्मारंभी ए० ऐसे प० पीछा कहना गो० गौतम जी० जीव दु० दोप्रकार के सं० संसारी अ० संसार को अप्राप्त त० तहां जे० जो अ० संसार को अप्राप्त ते ० वे सि० सिद्ध णो० नहीं आ० आत्मारंभी जा० यावत् अ० अनारंभी त० तहां जे० जो सं० संसारी ते० वे दु० {दोप्रकार के सं०संयति अ० असंयति तं तहां जे०जो सं० संयति ते०वे दुब्दोप्रकार के प० प्रमत्त संयति अ० णो अणारंभा ॥ अत्थेगइया जीवाणो आयारंभा, णो परारंभा, णो तदुभयारंभा, अणारंभा || सेकेणट्टेणं भंते एवं वुच्चइ ? अत्थेगइया जीवा आयारंभावि ! एवं पडि उच्चारेयव्वं ॥ गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - संसार समावण्णगाय, असंसार समावण्णंगाय ॥ तत्थणं जे ते असंसार समावण्णगाय, तेणं सिद्धा. सिद्धा णं णो नहीं है. कितनेक जीव आत्मारंभी नहीं है, परारंभी नहीं है, उभयारंभी भी नहीं हैं परंतु अनारंभी हैं. अहो भगवन् ! कितनेक जीव आत्मारंभी हैं, परारंभी है और उभयारंभी भी है परंतु अनारंभी नहीं है वैसे ही कितनेक जीव आत्मारंभी नहीं है, परारंभी नहीं है, आत्मपरारंभी दोनों
{ नहीं हैं परंतु अनारंभी हैं ऐसा जो आपका कथन है वह किस तरह से हैं ? अहो गौतम ! जीव के दो भेद हैं ? संसार में रहनेवाले और २ संसार से मुक्त उस में जो संसार असमावन्न जीव हैं वे चार
* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी
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