Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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शब्दार्थ
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी 89
भनिक अ० अतीव उ० सुंदर चि० हैं ए ऐसे ते. उन वा० वाणव्यंतर दे० देवके दे० देवलोक ज.. जघन्य द० दशवर्ष स० सहस्र ठि० स्थिति से उ० उत्कृष्ट प० पल्योपम ठि• स्थिति से व० बहुत वा० वाणव्यंतर दे० देव दे० देवीसे आ० व्याप्त वि० विस्तीर्ण उ० आच्छादित सं० संस्तर्णि फु० स्पर्श अ० रहे गा० गुप्त सि० लक्ष्मी से अ० अतीत २ उ• सुंदर शोभते चि० हैं ए. ऐसे गो० गौतम ते० उन वा० वाणव्यंतर दे० देवके दे० देवलोक प० प्ररूपे सो० वह ते० इसलिय गो० गौतम ए० ऐसा वु० कहा ___णं देवाणं देवलोया जहण्णेणं दस वास सहस्स ठिईएहिं, उक्कोसेणं पलिओवमट्टिईए
हिं बहुहिं वाणमंतरहिं देवेहिय देवीहिय आतिण्णा, वितिण्णा, उवत्थडा सैथडा फु___डा, अवगाढगाढ सिरीए, अतीव अतीव उक्सोभमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति ॥ ए. स __ रिसगाणं गोयमा ! तोप्तिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णत्ता से तेणट्रेणं गोयमा ! १ __ एवं वुच्चइ जीवे णं असंजए जाव देवोसया ॥ ४५ ॥ सेवं भंते ! भंते ति भगवं , संथारा जैसे विस्तीर्ण बने हुवे, आसन शयन रमण भाग से भोगवते व लक्ष्मी से अतीव सुशोभित रहे। हुवे हैं. अहो गौतम ! उन वाणव्यंतर के ऐसे देवलोक कहे हैं. और इसी कारण से कितनेक असंयति जीव देवतापने उत्पन्न होवे और कितनेक उत्पन्न नहोवे ॥ ४५ ॥ अहो भगवन् जैसे मैंने पृच्छा की वेसे ही आपने प्रतिपादन किया है. आप जैसा कहते है; वैसा ही है अन्यथा नहीं है. इस प्रकार भगवन्त के
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ