Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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शब्दार्थ
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करे आ० आयुष्य क० कर्म सि. कदाचित् वं० बांधे सि. कदाचित् नो नहीं ब० बांधे अ० असाता। वे. वेदनीय क. कर्म को भु. वारंवार उ० इकठाकरे अ० अनादी अ० अनंत दी. दीर्वकाल चा० चातुरंत सं० संसार कतार में अ० परिभ्रमणकरे से उसको ते. इसलिये गो० गौतम अ० अ-है। संवृत अ० अनगार णो० नहीं लि. सिझे ॥ ४३ ॥ सं० संवृत अ० अनगार सि. सिझे हैं. हा सिय बंधइ सिय नो बंधइ, असाया वेयणिजं च णं कम्मं भुजो भुजो उवचिणइ, अणाइयं च णे अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंत संसार कंतारं अणुपरियति । से तेणटेणं । गोयमा ! असंवुडे अणगारे णो सिझइ ॥ ४३ ॥ संवुडेणं भंते अणगारे सिझइ ?
हंता सिज्झइ जाव अंतं करेइ ॥ सेकेणटेणं भंते एवं वुच्चइ ? गोयमा ! संवुडेणं है कर्मों को दीर्घ काल की स्थितिवाले बनाता है मंद रस देनेवाले कर्मोंको तोवरस देनेवाला करता है, अ-31 ल्प प्रदेशात्मक कर्मों को बहुत प्रदेशात्मक कर्म करता है. आयुष्य कर्म का बंध किसि समय करता है किसिसमय नहीं करता है, असाता वेदनीय कर्म पुनःपुनः संचित करता है, और अनादि अनंत संसार कतार में परिभ्रमण करता है; इसलिये अहो गौतम ! असंवृत अनगार सिझे नहीं, यावत् संसार का अंतकरे नही. ॥ ४३ ॥ अहो भगवन्! आश्रवद्वार का रुंधन करनेवाला संवृत अणगार क्या सिझे यावत् अंतकरे ? हाई गौतम ! प्रवृत अणगार सिझे यावत अंत करे भगवन : किस कारन से संवृत्त अणगार सिझे यावत् अंत
१.११.१ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती:)
3*38 पहिला शतकका पहिला उद्देशा
भावाथे|
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